' मनुष्य की अदम्य जिजीविषा किसी महान ध्येय के साथ मिलकर कैसा चमत्कार कर दिखाती है यह वीर सावरकर के जेल जीवन में देखा जा सकता है । किसी को बंदी बना देने से उसके क्रिया-कलाप रुकते नहीं । जिनमे कुछ कर गुजरने की भावना होती है तो वे पर्वतों को तोड़कर भी राहें बना लेते हैं । बस ! लगन और धैर्य की आवश्यकता होती है ।
" दण्डित 1910 में, रिहाई 1960 में ' इन शब्दों से अंकित तख्ती गले मे लटकाये वीर सावरकर काले पानी की कोठरी में प्रविष्ट हो रहे थे किन्तु ना मुख म्लान, न मन में ग्लानि । आंतरिक स्थिरता भी डगमगाई नहीं | पास खड़े जेल आधिकारी ने व्यंग्य किया--- " घबराओ नहीं, ब्रिटिश सरकार पचास साल पूरे होते ही तुम्हे जरुर रिहा कर देगी । " सावरकर ने उत्तर दिया-- " किन्तु क्या ब्रिटिश सरकार भारत में पचास साल टिकी रह सकेगी ? "
जेल में उन्हे भी अन्य बंदियों की तरह कोल्हू चलाना पड़ता था, चक्की पीसनी पड़ती थी, भोजन ढंग का नहीं मिलता था, जलवायु तो पहले ही खराब थी, मलेरिया का भीषण प्रकोप होता था । कितने ही राजनैतिक कैदी सावरकर के सामने आए और यहां की अमानुषिक दरिन्दगियों से त्रस्त होकर मर गये, कितने ही पागल हो गये परन्तु वो वीर सवारकर थे जिन्होंने जीवन के मर्म को समझा, वे आशावादी थे, सब बाधाओं को झेलते हुए भी उन्होंने अपने संकल्पों को साकार करने में कभी आलस्य नहीं किया ।
उन्होंने लम्बी जेल यात्रा में ही जेल में हिन्दी भाषा के प्रचार का निश्चय किया और अंडमान की जेल में जाते ही उन्होंने जेल में स्थित बंदियों को साक्षर बनाने और अहिन्दी भाषियों को हिन्दी सिखाने का कार्य आरम्भ कर दिया । बंदी जीवन के कष्ट, अत्याचार और कठिनाइयों ने लोगों को इतना निराश बना दिया था कि उन्हें पढ़ने के लिये तैयार करने में भी सावरकर को बड़े धैर्य का परिचय देना पड़ा । कोई कहता--- " भैया, जाने कब यहां से मुक्ति मिलेगी, तब तक तो हम मर-खप जायेंगे । " किन्तु वीर सावरकर ने अपनी युक्तियों, अपने आशावाद, उत्साह और अपनी कर्मनिष्ठा से मरे हुए दिलों में प्राण संचार किये, उनका शिक्षण क्रम तेजी से चलने लगा । अनपढ़ पढ़ने लगे और अहिन्दी भाषी हिन्दी सीखने लगे । अब समस्या आयी पुस्तकों की | कुछ सह्रदय भारतीय अधिकारियों के सहयोग से कुछ पुस्तकें उपलब्ध हुईं उनसे वहां पुस्तकालय की स्थापना की
गई, किन्तु पढ़ने वालों की संख्या देखते हुए वे पुस्तकें कम थीं । अब तरीका खोजा गया कि बंदी पैसा जमा करें और अवसर देखकर बाहर से पुस्तकें मंगा लें । इन्ही दिनों दीवान सिंह नामक एक व्यक्ति की मृत्यु हुई, कैदियों ने जो पैसा-पैसा जोड़ा था, इकठ्ठा किया | लगभग दो सौ रूपये थे, उन रुपयों से दिवंगत बंदी की स्मृति में पुस्तकें मंगाई । इनमे सामान्य व्यक्ति के स्तर से लेकर उच्च साहित्यिक पुस्तकें भी थीं जिससे सभी स्तर के लोग लाभ उठा सकें ।
जेल से जिन व्यापारियों का सम्पर्क रहा करता था उन्हें भी सावरकर ने कहा--- हिन्दी सीखने का प्रयास करो, अपने बच्चों को हिन्दी सिखाओ ताकि सरकार उनके लिए पाठशाला खोल सके, उन्होंने कहा--- राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने और भावनात्मक एकता के लिए एक राष्ट्र-भाषा हिन्दी अनिवार्य है | दस वर्षों तक वे इन काल-कोठरियों में पाठशाला चलाते रहे--- अपने ढंग की अनोखी पाठशाला, जिसके लिए न समय था, न साधन, ऊपर से अंकुश लगा रहता था, उन्हें जब भी समय मिलता अपना पढ़ाने का काम पकड़ लेते, वे दस वर्ष तक वहां रहे और 90 प्रतिशत बंदियों को साक्षर बना दिया, उन्हें हिन्दी सिखाई और हिन्दी सम्पर्क की भाषा बनी फिर हिन्दी के साथ-साथ दूसरी भाषाओँ का शिक्षण भी आरम्भ किया गया । महान देशभक्त, प्रखर साहित्यकार, कर्मनिष्ठ और ध्येय के प्रति अटूट विश्वास रखने वाले महान आशावादी के रूप में वे आज भी हमारे बीच विद्दमान हैं ।
" दण्डित 1910 में, रिहाई 1960 में ' इन शब्दों से अंकित तख्ती गले मे लटकाये वीर सावरकर काले पानी की कोठरी में प्रविष्ट हो रहे थे किन्तु ना मुख म्लान, न मन में ग्लानि । आंतरिक स्थिरता भी डगमगाई नहीं | पास खड़े जेल आधिकारी ने व्यंग्य किया--- " घबराओ नहीं, ब्रिटिश सरकार पचास साल पूरे होते ही तुम्हे जरुर रिहा कर देगी । " सावरकर ने उत्तर दिया-- " किन्तु क्या ब्रिटिश सरकार भारत में पचास साल टिकी रह सकेगी ? "
जेल में उन्हे भी अन्य बंदियों की तरह कोल्हू चलाना पड़ता था, चक्की पीसनी पड़ती थी, भोजन ढंग का नहीं मिलता था, जलवायु तो पहले ही खराब थी, मलेरिया का भीषण प्रकोप होता था । कितने ही राजनैतिक कैदी सावरकर के सामने आए और यहां की अमानुषिक दरिन्दगियों से त्रस्त होकर मर गये, कितने ही पागल हो गये परन्तु वो वीर सवारकर थे जिन्होंने जीवन के मर्म को समझा, वे आशावादी थे, सब बाधाओं को झेलते हुए भी उन्होंने अपने संकल्पों को साकार करने में कभी आलस्य नहीं किया ।
उन्होंने लम्बी जेल यात्रा में ही जेल में हिन्दी भाषा के प्रचार का निश्चय किया और अंडमान की जेल में जाते ही उन्होंने जेल में स्थित बंदियों को साक्षर बनाने और अहिन्दी भाषियों को हिन्दी सिखाने का कार्य आरम्भ कर दिया । बंदी जीवन के कष्ट, अत्याचार और कठिनाइयों ने लोगों को इतना निराश बना दिया था कि उन्हें पढ़ने के लिये तैयार करने में भी सावरकर को बड़े धैर्य का परिचय देना पड़ा । कोई कहता--- " भैया, जाने कब यहां से मुक्ति मिलेगी, तब तक तो हम मर-खप जायेंगे । " किन्तु वीर सावरकर ने अपनी युक्तियों, अपने आशावाद, उत्साह और अपनी कर्मनिष्ठा से मरे हुए दिलों में प्राण संचार किये, उनका शिक्षण क्रम तेजी से चलने लगा । अनपढ़ पढ़ने लगे और अहिन्दी भाषी हिन्दी सीखने लगे । अब समस्या आयी पुस्तकों की | कुछ सह्रदय भारतीय अधिकारियों के सहयोग से कुछ पुस्तकें उपलब्ध हुईं उनसे वहां पुस्तकालय की स्थापना की
गई, किन्तु पढ़ने वालों की संख्या देखते हुए वे पुस्तकें कम थीं । अब तरीका खोजा गया कि बंदी पैसा जमा करें और अवसर देखकर बाहर से पुस्तकें मंगा लें । इन्ही दिनों दीवान सिंह नामक एक व्यक्ति की मृत्यु हुई, कैदियों ने जो पैसा-पैसा जोड़ा था, इकठ्ठा किया | लगभग दो सौ रूपये थे, उन रुपयों से दिवंगत बंदी की स्मृति में पुस्तकें मंगाई । इनमे सामान्य व्यक्ति के स्तर से लेकर उच्च साहित्यिक पुस्तकें भी थीं जिससे सभी स्तर के लोग लाभ उठा सकें ।
जेल से जिन व्यापारियों का सम्पर्क रहा करता था उन्हें भी सावरकर ने कहा--- हिन्दी सीखने का प्रयास करो, अपने बच्चों को हिन्दी सिखाओ ताकि सरकार उनके लिए पाठशाला खोल सके, उन्होंने कहा--- राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने और भावनात्मक एकता के लिए एक राष्ट्र-भाषा हिन्दी अनिवार्य है | दस वर्षों तक वे इन काल-कोठरियों में पाठशाला चलाते रहे--- अपने ढंग की अनोखी पाठशाला, जिसके लिए न समय था, न साधन, ऊपर से अंकुश लगा रहता था, उन्हें जब भी समय मिलता अपना पढ़ाने का काम पकड़ लेते, वे दस वर्ष तक वहां रहे और 90 प्रतिशत बंदियों को साक्षर बना दिया, उन्हें हिन्दी सिखाई और हिन्दी सम्पर्क की भाषा बनी फिर हिन्दी के साथ-साथ दूसरी भाषाओँ का शिक्षण भी आरम्भ किया गया । महान देशभक्त, प्रखर साहित्यकार, कर्मनिष्ठ और ध्येय के प्रति अटूट विश्वास रखने वाले महान आशावादी के रूप में वे आज भी हमारे बीच विद्दमान हैं ।
No comments:
Post a Comment