स्वामी विवेकानन्द के बाद भारतीय दर्शन की कीर्ति पताका विश्व भर में फहराने वाला कोई व्यक्तित्व खोजा जाये तो अनायास ही द्रष्टि डॉ. राधाकृष्णन की ओर केन्द्रित हो जाती है । एक विख्यात पत्रकार ने कहा था--- "उन्होंने भारतीय विचार भूमि पर खड़े होकर विश्व के सम्मुख भारतीय समतावाद को उद्घाटित किया | इस द्रष्टि से उन्होंने न केवल दर्शन को एक नयी दिशा दी वरन अशान्त विश्व को शान्ति का मार्ग दिखाने का प्रयत्न किया । "
उनकी पुस्तक--- इंडियन फिलासफी तथा ' दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ ' ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया । डॉ. राधाकृष्णन भारतीय और पश्चिमी दोनों दर्शनों के महापंडित थे । उन्हें अमेरिका , ब्रिटेन तथा जर्मनी के विभिन्न विश्वविद्यालयों में तथा चर्च और गिरिजाघरों में भी धर्म और अध्यात्म आदि विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देने बुलाया जाता था । इससे विदेशों में भारत का एक नया गौरव मण्डित स्वरूप उजागर हुआ ।
डॉ. राधाकृष्णन का एकमात्र उद्देश्य था सन्तप्त मानवता को शान्ति की शीतलता प्रदान करना
इस उद्देश्य के लिए उनके ह्रदय में निरंतर एक टीस सी उठा करती थी । पीड़ित मानवता के प्रति वे इतने दुःखित थे कि उस भावना ने उन्हें सर्वथा निर्भीक ओर स्पष्टवादी बना दिया ।
जब वे भारतीय राजदूत के रूप मे मास्को में रहते थे, तब एक बार उन्होने स्टालिन से कहा--- " भारत के महान सम्राट संग्राम में विजय पाकर भिक्षु बन गये थे । कौन जाने शायद आप भी उसी प्रशस्त मार्ग पर चल पड़ें | "
स्टालिन ने उत्तर दिया---- " हाँ कई बार चमत्कारी घटनाएँ भी हो जाती हैं । ऐसा चमत्कार भी संभव तो है । " रूस से विदा लेते हुए डॉ. राधाकृष्णन जब स्टालिन से मिलने गये, तो विदा लेते हुए स्टालिन के सिर पर हाथ रखा तो स्टालिन की आँखें सजल हो उठीं, उसने भीगी आँखों से विदा देते हुए कहा--- " आप प्रथम व्यक्ति हैं, जो मुझसे मानव-सा व्यवहार करते हैं, शेष सब राजदूत तो मुझे दैत्य मानकर दूर रहते हैं । मुझे अब अधिक दिन नहीं जीना, ईश्वर आपको चिरायु करे | "
इस संवाद के छ: महीने बाद स्टालिन ने शरीर छोड़ दिया ।
उनकी पुस्तक--- इंडियन फिलासफी तथा ' दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ ' ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर का व्यक्ति बना दिया । डॉ. राधाकृष्णन भारतीय और पश्चिमी दोनों दर्शनों के महापंडित थे । उन्हें अमेरिका , ब्रिटेन तथा जर्मनी के विभिन्न विश्वविद्यालयों में तथा चर्च और गिरिजाघरों में भी धर्म और अध्यात्म आदि विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देने बुलाया जाता था । इससे विदेशों में भारत का एक नया गौरव मण्डित स्वरूप उजागर हुआ ।
डॉ. राधाकृष्णन का एकमात्र उद्देश्य था सन्तप्त मानवता को शान्ति की शीतलता प्रदान करना
इस उद्देश्य के लिए उनके ह्रदय में निरंतर एक टीस सी उठा करती थी । पीड़ित मानवता के प्रति वे इतने दुःखित थे कि उस भावना ने उन्हें सर्वथा निर्भीक ओर स्पष्टवादी बना दिया ।
जब वे भारतीय राजदूत के रूप मे मास्को में रहते थे, तब एक बार उन्होने स्टालिन से कहा--- " भारत के महान सम्राट संग्राम में विजय पाकर भिक्षु बन गये थे । कौन जाने शायद आप भी उसी प्रशस्त मार्ग पर चल पड़ें | "
स्टालिन ने उत्तर दिया---- " हाँ कई बार चमत्कारी घटनाएँ भी हो जाती हैं । ऐसा चमत्कार भी संभव तो है । " रूस से विदा लेते हुए डॉ. राधाकृष्णन जब स्टालिन से मिलने गये, तो विदा लेते हुए स्टालिन के सिर पर हाथ रखा तो स्टालिन की आँखें सजल हो उठीं, उसने भीगी आँखों से विदा देते हुए कहा--- " आप प्रथम व्यक्ति हैं, जो मुझसे मानव-सा व्यवहार करते हैं, शेष सब राजदूत तो मुझे दैत्य मानकर दूर रहते हैं । मुझे अब अधिक दिन नहीं जीना, ईश्वर आपको चिरायु करे | "
इस संवाद के छ: महीने बाद स्टालिन ने शरीर छोड़ दिया ।
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