' हे प्रभु ! मुझे अपनी शान्ति का वाहन बना, मुझे ऐसी शक्ति प्रदान कर , जहां द्वेष हो, वहां मैं प्रेम का बीज बोऊँ, जहां वैर भाव हो, वहां मैं क्षमा-भाव फैलाऊं, जहां अन्धकार हो, वहां मैं प्रकाश फैलाऊं' जहां व्याधि हो, वहां मैं आनन्द विकीर्ण करूँ । "
महात्मा फ्रांसिस के ये उद्गार केवल भावुक अनुभूतियाँ मात्र नहीं थे, बल्कि उनका सम्पूर्ण जीवन उन्ही के अनुरूप प्रेरित और संचालित होता था । महात्मा फ्रांसिस केवल एक सन्त-साधक ही नही थे बल्कि जन-सेवा, सहानुभूति और करुणा की साकार प्रतिमा भी थे ।
फ्रांसिस सन्त डेमियन के एकांत गिरिजाघर में जाकर बैठ जाते थे और घन्टों मानव कल्याण के लिए सोचते और परमात्मा से प्रार्थना किया करते । एक दिन फ्रांसिस का ध्यान गिरिजाघर की ओर गया, उन्होंने देखा कि यह तो खण्डहर हो चुका है, उन्होंने इसके पुनर्निर्माण का विचार किया । उनके पिता बहुत धनवान थे लेकिन उन्होंने धन देने से मना कर दिया , फ्रांसिस ने उस दिन घर और सम्पति को तिलांजलि दे दी और नि:स्वार्थ सेवा के मार्ग पर बढ़ चले और महात्मा फ्रांसिस बन गये
महात्मा फ्रांसिस को गिरिजाघर के लिए जन-जन से धन की याचना करना उचित न लगा, इसके लिए उन्होंने स्वयं परिश्रम करने की सोची । जिन स्थानों पर निर्माण कार्य हो रहे होते वे वहां जाकर अन्य मजदूरों की तरह मजदूरी करते ओर छुट्टी के बाद बड़ी देर रात तक प्रेरणादायक भजन गाते ।
महात्मा फ्रांसिस तो बड़े विलक्षण मजदूर थे, मजदूरी लेने के समय जब अन्य मजदूर पैसे लेते तब वे मालिक से प्रार्थना करते कि मजदूरी के एवज में उन्हें पैसे नहीं ईंट दे दी जाये , भजन-गायन के एवज में केवल एक घर से थोड़ा सा भोजन लेते और बाकी सारे दाताओं से वे यही प्रार्थना करते कि भोजन या पैसे देने के बजाय ईंट दें | मालिक से लेकर मजदूर तक सभी के मन में इस विचित्र मजदूर के प्रति जिज्ञासा होने लगी । एक दिन जब वे ईंट ढो-ढोकर ले जा रहे थे तब लोगों ने उनका पीछा किया और देखा कि वे ईंट ले जाकर सन्त डेमियन के टूटे गिरिजाघर में जमा करते हैं और कहते हैं --- ' अभी थोड़ी सी कमी है ' और पूजा-उपासना भी करते हैं ।
लोगों ने उनकी साधारण बातों के पीछे छिपी महानता को जाना, उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी । लोग योजनाएं पूछते और तन-मन-धन से पूरी करने में जुट जाते । संत डेमियन के गिरिजाघर का जीर्णोद्धार हो गया, योजनाएं चलती रहीं और धीरे धीरे सभी गिरिजाघरों में सुधार व नवीनता का समावेश हों गया । लोगों ने पूछा--- " महात्मन ! अब आगे ? "
महात्मा फ्रांसिस ने कहा---- " केवल गिरिजाघरों के बन जाने या सज जाने से उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता , उनका उद्देश्य तब पूरा होता जब उनके मंदिर सत्संग, कथा-वार्ता, स्तुति गान और प्रार्थनाओं से मुखर होते रहें, उनकी प्रेरणा से सच्चे धर्म का प्रचार-प्रसार हो , उनका उद्देश्य तब पूरा होता है जब उनमे से जन सेवक निकलकर लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें, दीन, दुःखियों, अनाथों और असहायों का सहारा बने । भगवान के इन मंदिरों की सार्थकता तो तब है जब ये प्रेम, करुणा और मैत्री के स्रोत बने और इनमे विद्दापीठों की स्थापना हो । इनके एक भाग में पुस्तकालय हो तो एक भाग में धार्मिक कक्षाएं चल रही हों | सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्वास्थ्य एवं चरित्रवर्द्धक गतिविधियां ही इनकी सार्थकता का कारण बन सकते हैं
महात्मा फ्रांसिस ने नव निर्माण की सार्थकता हेतु जिस व्यापक सन्देश को प्रसारित किया उसने लोगों के जीवन में नया उत्साह भर दिया । । जगह-जगह धर्म के उत्थान और समाज के निर्माण के कार्यक्रम चलते दिखाई देने लगे ।
महात्मा फ्रांसिस सर्वमान्य सन्देश वाहक बन गये
महात्मा फ्रांसिस के ये उद्गार केवल भावुक अनुभूतियाँ मात्र नहीं थे, बल्कि उनका सम्पूर्ण जीवन उन्ही के अनुरूप प्रेरित और संचालित होता था । महात्मा फ्रांसिस केवल एक सन्त-साधक ही नही थे बल्कि जन-सेवा, सहानुभूति और करुणा की साकार प्रतिमा भी थे ।
फ्रांसिस सन्त डेमियन के एकांत गिरिजाघर में जाकर बैठ जाते थे और घन्टों मानव कल्याण के लिए सोचते और परमात्मा से प्रार्थना किया करते । एक दिन फ्रांसिस का ध्यान गिरिजाघर की ओर गया, उन्होंने देखा कि यह तो खण्डहर हो चुका है, उन्होंने इसके पुनर्निर्माण का विचार किया । उनके पिता बहुत धनवान थे लेकिन उन्होंने धन देने से मना कर दिया , फ्रांसिस ने उस दिन घर और सम्पति को तिलांजलि दे दी और नि:स्वार्थ सेवा के मार्ग पर बढ़ चले और महात्मा फ्रांसिस बन गये
महात्मा फ्रांसिस को गिरिजाघर के लिए जन-जन से धन की याचना करना उचित न लगा, इसके लिए उन्होंने स्वयं परिश्रम करने की सोची । जिन स्थानों पर निर्माण कार्य हो रहे होते वे वहां जाकर अन्य मजदूरों की तरह मजदूरी करते ओर छुट्टी के बाद बड़ी देर रात तक प्रेरणादायक भजन गाते ।
महात्मा फ्रांसिस तो बड़े विलक्षण मजदूर थे, मजदूरी लेने के समय जब अन्य मजदूर पैसे लेते तब वे मालिक से प्रार्थना करते कि मजदूरी के एवज में उन्हें पैसे नहीं ईंट दे दी जाये , भजन-गायन के एवज में केवल एक घर से थोड़ा सा भोजन लेते और बाकी सारे दाताओं से वे यही प्रार्थना करते कि भोजन या पैसे देने के बजाय ईंट दें | मालिक से लेकर मजदूर तक सभी के मन में इस विचित्र मजदूर के प्रति जिज्ञासा होने लगी । एक दिन जब वे ईंट ढो-ढोकर ले जा रहे थे तब लोगों ने उनका पीछा किया और देखा कि वे ईंट ले जाकर सन्त डेमियन के टूटे गिरिजाघर में जमा करते हैं और कहते हैं --- ' अभी थोड़ी सी कमी है ' और पूजा-उपासना भी करते हैं ।
लोगों ने उनकी साधारण बातों के पीछे छिपी महानता को जाना, उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी । लोग योजनाएं पूछते और तन-मन-धन से पूरी करने में जुट जाते । संत डेमियन के गिरिजाघर का जीर्णोद्धार हो गया, योजनाएं चलती रहीं और धीरे धीरे सभी गिरिजाघरों में सुधार व नवीनता का समावेश हों गया । लोगों ने पूछा--- " महात्मन ! अब आगे ? "
महात्मा फ्रांसिस ने कहा---- " केवल गिरिजाघरों के बन जाने या सज जाने से उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता , उनका उद्देश्य तब पूरा होता जब उनके मंदिर सत्संग, कथा-वार्ता, स्तुति गान और प्रार्थनाओं से मुखर होते रहें, उनकी प्रेरणा से सच्चे धर्म का प्रचार-प्रसार हो , उनका उद्देश्य तब पूरा होता है जब उनमे से जन सेवक निकलकर लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें, दीन, दुःखियों, अनाथों और असहायों का सहारा बने । भगवान के इन मंदिरों की सार्थकता तो तब है जब ये प्रेम, करुणा और मैत्री के स्रोत बने और इनमे विद्दापीठों की स्थापना हो । इनके एक भाग में पुस्तकालय हो तो एक भाग में धार्मिक कक्षाएं चल रही हों | सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्वास्थ्य एवं चरित्रवर्द्धक गतिविधियां ही इनकी सार्थकता का कारण बन सकते हैं
महात्मा फ्रांसिस ने नव निर्माण की सार्थकता हेतु जिस व्यापक सन्देश को प्रसारित किया उसने लोगों के जीवन में नया उत्साह भर दिया । । जगह-जगह धर्म के उत्थान और समाज के निर्माण के कार्यक्रम चलते दिखाई देने लगे ।
महात्मा फ्रांसिस सर्वमान्य सन्देश वाहक बन गये
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