विश्व-मानवता के पुजारी महात्मा फ्रांसिस के कार्यों और विचारों ने यूरोप में सुधार की एक क्रान्ति ला दी । भौतिकवाद का प्रचार अत्यधिक बढ़ जाने पर भी आज जो यूरोपीय जनता में धर्म का भाव मौजूद है और सेवा तथा सहायता के कार्यों में वे जिस प्रकार दिल खोलकर तथा मुक्त-हस्त से भाग लेते हैं वह सन्त फ्रांसिस जैसे महामानवों का ही प्रसाद है ।
महात्मा फ्रांसिस केवल संत नहीं सच्चे समाज सेवक थे । उन्होंने भिखारियों के प्रति भी उपकार किया-------- उन्होंने भिखारियों के दो अलग-अलग वर्ग बना डाले । प्रथम वर्ग में ऐसे भिखारियों को रखा जो अपंग और अपाहिज थे और भिक्षा दान के ठीक-ठीक अधिकारी थे ।
दूसरे वर्ग में उन्होंने उन भिखारियों को रखा जो अच्छे-खासे थे और आराम से मेहनत मजदूरी कर सकते थे ।
उन्होंने दूसरे वर्ग के भिखारियों को समझाया कि भिक्षा मांग कर खाना घोर अपमान और लज्जा की बात है । अच्छा-खासा शरीर पाकर किसी के सामने हाथ पसारना जघन्य अपराध है, इससे परमात्मा को भी दुःख होता है कि निकम्मे आदमी को सुन्दर शरीर क्यों दिया ?
इसके साथ ही उन्होने नागरिकों को भी समझाया कि वे अपनी उदारता का अपव्यय न करें । समर्थ शरीर वाले भिखारी अधिक तत्परता और चतुराई से समाज की उदारता का लाभ उठा लेते हैं और तब वे असमर्थ भिखारियों को जल्दी कुछ दे सकने में अपने को रिक्त अनुभव करते हैं । इस प्रकार भिक्षा के जो सच्चे अधिकारी हैं उनका अवसर समाप्त हो जाता है । यह अन्याय है, अत्याचार है जो किसी को नहीं करना चाहिए ।
उन्होंने समर्थ भिक्षुओं के लिए कार्य के अवसर खोजने में यथासंभव सहायता की और नागरिकों से उन्हें काम देने की अपील की । उनका कहना था ---- समर्थ भिखारियों को चाहिए कि वे जहां तक संभव हो मेहनत, मजदूरी करके सम्मान पूर्वक जीने का प्रयत्न करें ।
महात्मा फ्रांसिस का जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था किंतु उस सम्पति को त्याग वे संत फ्रांसिस हो गये । वे अपना भोजन काम कर के ही लेते थे । वे किसी एक घर चले जाते थे और उसका कोंई न कोई काम करके रोटी ले आते थे । इन कार्यों में पानी भरने से लेकर बर्तन माँजने और झाड़ू लगाने तक के काम शामिल होते थे । उनका कहना था कि रोटी पाने का सच्चा अधिकारी वही है जो बदले में कुछ ठोस कार्य करे ।
उनके विचार, उद्गार केवल भावुक अनुभूतियाँ मात्र ही नहीं थे, बल्कि उनका संपूर्ण जीवन ही उन्ही के अनुरूप प्रेरित और संचालित होता था ।
महात्मा फ्रांसिस केवल संत नहीं सच्चे समाज सेवक थे । उन्होंने भिखारियों के प्रति भी उपकार किया-------- उन्होंने भिखारियों के दो अलग-अलग वर्ग बना डाले । प्रथम वर्ग में ऐसे भिखारियों को रखा जो अपंग और अपाहिज थे और भिक्षा दान के ठीक-ठीक अधिकारी थे ।
दूसरे वर्ग में उन्होंने उन भिखारियों को रखा जो अच्छे-खासे थे और आराम से मेहनत मजदूरी कर सकते थे ।
उन्होंने दूसरे वर्ग के भिखारियों को समझाया कि भिक्षा मांग कर खाना घोर अपमान और लज्जा की बात है । अच्छा-खासा शरीर पाकर किसी के सामने हाथ पसारना जघन्य अपराध है, इससे परमात्मा को भी दुःख होता है कि निकम्मे आदमी को सुन्दर शरीर क्यों दिया ?
इसके साथ ही उन्होने नागरिकों को भी समझाया कि वे अपनी उदारता का अपव्यय न करें । समर्थ शरीर वाले भिखारी अधिक तत्परता और चतुराई से समाज की उदारता का लाभ उठा लेते हैं और तब वे असमर्थ भिखारियों को जल्दी कुछ दे सकने में अपने को रिक्त अनुभव करते हैं । इस प्रकार भिक्षा के जो सच्चे अधिकारी हैं उनका अवसर समाप्त हो जाता है । यह अन्याय है, अत्याचार है जो किसी को नहीं करना चाहिए ।
उन्होंने समर्थ भिक्षुओं के लिए कार्य के अवसर खोजने में यथासंभव सहायता की और नागरिकों से उन्हें काम देने की अपील की । उनका कहना था ---- समर्थ भिखारियों को चाहिए कि वे जहां तक संभव हो मेहनत, मजदूरी करके सम्मान पूर्वक जीने का प्रयत्न करें ।
महात्मा फ्रांसिस का जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था किंतु उस सम्पति को त्याग वे संत फ्रांसिस हो गये । वे अपना भोजन काम कर के ही लेते थे । वे किसी एक घर चले जाते थे और उसका कोंई न कोई काम करके रोटी ले आते थे । इन कार्यों में पानी भरने से लेकर बर्तन माँजने और झाड़ू लगाने तक के काम शामिल होते थे । उनका कहना था कि रोटी पाने का सच्चा अधिकारी वही है जो बदले में कुछ ठोस कार्य करे ।
उनके विचार, उद्गार केवल भावुक अनुभूतियाँ मात्र ही नहीं थे, बल्कि उनका संपूर्ण जीवन ही उन्ही के अनुरूप प्रेरित और संचालित होता था ।
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