' 18 वर्ष वे इंग्लैंड में रहे और उन्होंने अंग्रेजों के जातीय गौरव और उपयुक्त गुणों को सीखा, स्वतंत्र देश में रहकर उन्हें स्वतंत्रता प्राणप्रिय लगने लगी । भारत लौटे तो उनके कण-कण में भारत को इंग्लैंड जैसा स्वतंत्र, संपन्न और प्रबुद्ध बनाने की आकांक्षा भरी हुई थी । '
श्री अरविन्द के पिता ने उन्हें 7 वर्ष की आयु में ही इंग्लैंड पढ़ने भेज दिया था । 18 वर्ष की आयु में उन्होंने आई. सी. एस. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली । इस अवधि में उन्होंने अंग्रेजी के अतिरिक्त जर्मन, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच और इटली की भाषाओँ में निपुणता प्राप्त कर ली ।
बड़ौदा नरेश उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनकी नियुक्ति शिक्षा शास्त्री के रूप में हो गई । 13 वर्षों तक वे प्रधानाध्यापक, वाइस प्रिंसिपल और निजी सचिव का काम योग्यतापूर्वक करते रहे । इस बीच उन्होंने सहस्त्रों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया ।
उस समय भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ रहा था । सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने का बहिष्कार होना आवश्यक था | किन्तु उस समय आन्दोलनकारियों के पास इतने साधन नहीं थे, जिससे महाविद्यालय चल जाये । कुछ रुपया इकट्ठा हुआ । महाविद्यालय की रुपरेखा बनाई गई और विद्दालय की ओर से केवल 75 रूपये मासिक वेतन पर संचालक का विज्ञापन किया गया । सभी ने सोच रखा था इतने से वेतन पर कौन अच्छा आदमी आयेगा ? सब निराश ही थे कि अचानक एक आवेदन पत्र आया वह भी एक योग्य अनुभवी व्यक्ति का, जिसकी स्वप्न में भी आशा नहीं की जा सकती ।
बड़ौदा कॉलेज के अध्यक्ष श्री अरविन्द घोष ने, जिन्हें उस समय अन्य सुविधाओं के साथ सात सौ पचास रुपया मसिक वेतन था, उसे छोडकर बंगाल में स्थापित इस नव राष्ट्रीय महाविद्यालय के लिए 75 रूपये मासिक वेतन पर काम करना स्वीकार कर लिया । जहां इतना त्याग आदर्श किसी संस्था का संचालक उपस्थित करे वहां छात्रों के चरित्र एवं भावनाओं पर क्यों प्रभाव न पड़ेगा ? उस विद्दालय के छात्रों ने आगे चलकर स्वतंत्रता आन्दोलन में भारी भाग लिया और उनमे से कितने ही चोटी के राजनैतिक नेता बने ।
महर्षि अरविन्द प्राचीन ऋषियों की भांति एक महान विचारक थे । वे केवल विचारक ही नहीं थे, वे उन विचारों कों कार्यरूप में परिणत भी करते थे ।
श्री अरविन्द के पिता ने उन्हें 7 वर्ष की आयु में ही इंग्लैंड पढ़ने भेज दिया था । 18 वर्ष की आयु में उन्होंने आई. सी. एस. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली । इस अवधि में उन्होंने अंग्रेजी के अतिरिक्त जर्मन, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच और इटली की भाषाओँ में निपुणता प्राप्त कर ली ।
बड़ौदा नरेश उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनकी नियुक्ति शिक्षा शास्त्री के रूप में हो गई । 13 वर्षों तक वे प्रधानाध्यापक, वाइस प्रिंसिपल और निजी सचिव का काम योग्यतापूर्वक करते रहे । इस बीच उन्होंने सहस्त्रों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया ।
उस समय भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ रहा था । सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने का बहिष्कार होना आवश्यक था | किन्तु उस समय आन्दोलनकारियों के पास इतने साधन नहीं थे, जिससे महाविद्यालय चल जाये । कुछ रुपया इकट्ठा हुआ । महाविद्यालय की रुपरेखा बनाई गई और विद्दालय की ओर से केवल 75 रूपये मासिक वेतन पर संचालक का विज्ञापन किया गया । सभी ने सोच रखा था इतने से वेतन पर कौन अच्छा आदमी आयेगा ? सब निराश ही थे कि अचानक एक आवेदन पत्र आया वह भी एक योग्य अनुभवी व्यक्ति का, जिसकी स्वप्न में भी आशा नहीं की जा सकती ।
बड़ौदा कॉलेज के अध्यक्ष श्री अरविन्द घोष ने, जिन्हें उस समय अन्य सुविधाओं के साथ सात सौ पचास रुपया मसिक वेतन था, उसे छोडकर बंगाल में स्थापित इस नव राष्ट्रीय महाविद्यालय के लिए 75 रूपये मासिक वेतन पर काम करना स्वीकार कर लिया । जहां इतना त्याग आदर्श किसी संस्था का संचालक उपस्थित करे वहां छात्रों के चरित्र एवं भावनाओं पर क्यों प्रभाव न पड़ेगा ? उस विद्दालय के छात्रों ने आगे चलकर स्वतंत्रता आन्दोलन में भारी भाग लिया और उनमे से कितने ही चोटी के राजनैतिक नेता बने ।
महर्षि अरविन्द प्राचीन ऋषियों की भांति एक महान विचारक थे । वे केवल विचारक ही नहीं थे, वे उन विचारों कों कार्यरूप में परिणत भी करते थे ।
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