' सामान्य एवं साधारण मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला व्यक्ति भी अपने महान कार्यों द्वारा अवतारी पुरुष बन सकता है । श्री रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे ही व्यक्ति थे जिन्होंने अपने कर्तव्य की महानता से ही अवतार पद प्राप्त किया था । '
जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने कई तरह की उपासना पद्धतियों का प्रयोग किया, उन्होंने पाया कि इन उपासनाओं से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ । अंत में वे स्वयं के चिन्तन-मनन के आधार पर
नर-नारायण की उपासना के निष्कर्ष पर पहुंचे ।
भगवत प्राप्ति का अमोघ उपाय पाकर उन्होंने सारी उपासना पद्धतियों को छोड़ दिया और मनुष्य-सेवा के रूप में परमात्मा की सेवा स्वीकार की और अपने में एक स्थायी सुख-शान्ति तथा संतोष का अनुभव किया ।
रोगियों की परिचर्या, अपंगों की सेवा और निर्धनों की सहायता करना उनका विशेष कार्यक्रम बन गया । जहां भी वे किसी रोगी को कराहते देखते अपने हाथों से उसकी परिचर्या करते । अपंगो एवं विकलांगों के पास जाकर उनकी सहायता करते, साधारण रोगियों से लेकर कुष्ठ रोगियों तक की सेवा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता । दरिद्रों को भोजन कराना और उनके साथ बैठकर प्रेमपूर्वक बातें करने में वे जिस आनंद का अनुभव करते थे वैसा आनंद उन्होंने अपनी एकांतिक साधना में कभी नहीं पाया था |
उन्होंने जन-सेवा द्वारा भगवद प्राप्ति का जो मार्ग निकाला वह अवश्य ही उनकी निर्विकार आत्मा में प्रतिध्वनित परमात्मा का ही आदेश था, जिसका पालन उन्होंने स्वयं किया और वैसा ही करने का उपदेश अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों को भी दिया ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के निश्छल ह्रदय से निकली हुई पुकार " देश-विदेश सभी जगह रामकृष्ण मिशनों, सेवाश्रम तथा वेदांत केंद्र सहस्त्रों रोगियों को परिचर्या और दुःखियों को सहायता और पथ भ्रांतों को आलोक दे रहे हैं ।
संसार उनकी सेवाओं का लाभ पाकर उन्हें एक अवतारी पुरुष के रूप में याद करता रहेगा ।
जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने कई तरह की उपासना पद्धतियों का प्रयोग किया, उन्होंने पाया कि इन उपासनाओं से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ । अंत में वे स्वयं के चिन्तन-मनन के आधार पर
नर-नारायण की उपासना के निष्कर्ष पर पहुंचे ।
भगवत प्राप्ति का अमोघ उपाय पाकर उन्होंने सारी उपासना पद्धतियों को छोड़ दिया और मनुष्य-सेवा के रूप में परमात्मा की सेवा स्वीकार की और अपने में एक स्थायी सुख-शान्ति तथा संतोष का अनुभव किया ।
रोगियों की परिचर्या, अपंगों की सेवा और निर्धनों की सहायता करना उनका विशेष कार्यक्रम बन गया । जहां भी वे किसी रोगी को कराहते देखते अपने हाथों से उसकी परिचर्या करते । अपंगो एवं विकलांगों के पास जाकर उनकी सहायता करते, साधारण रोगियों से लेकर कुष्ठ रोगियों तक की सेवा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता । दरिद्रों को भोजन कराना और उनके साथ बैठकर प्रेमपूर्वक बातें करने में वे जिस आनंद का अनुभव करते थे वैसा आनंद उन्होंने अपनी एकांतिक साधना में कभी नहीं पाया था |
उन्होंने जन-सेवा द्वारा भगवद प्राप्ति का जो मार्ग निकाला वह अवश्य ही उनकी निर्विकार आत्मा में प्रतिध्वनित परमात्मा का ही आदेश था, जिसका पालन उन्होंने स्वयं किया और वैसा ही करने का उपदेश अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों को भी दिया ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के निश्छल ह्रदय से निकली हुई पुकार " देश-विदेश सभी जगह रामकृष्ण मिशनों, सेवाश्रम तथा वेदांत केंद्र सहस्त्रों रोगियों को परिचर्या और दुःखियों को सहायता और पथ भ्रांतों को आलोक दे रहे हैं ।
संसार उनकी सेवाओं का लाभ पाकर उन्हें एक अवतारी पुरुष के रूप में याद करता रहेगा ।
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