'महात्मा भगवानदीन आध्यात्मिक क्षेत्र में एक सम्पूर्ण महात्मा, सामाजिक क्षेत्र के श्रेष्ठ नागरिक और राष्ट्रीय क्षेत्र में महान देश भक्त थे l जीवन के प्रारंभिक काल में उन्होंने संयम, परिश्रम एवं पुरुषार्थ के गुणों के साथ अपने जिस जीवन का निर्माण किया था, अस्सी वर्ष की आयु तक उसका उचित उपयोग कर 1964 में संसार से विदा हो गये ।
शास्त्रों के अध्ययन के बाद उन्होंने जनसेवा का व्रत लिया । उन्होंने इसकी रुपरेखा निर्धारित करने के लिए विचार करना शुरू किया । वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक देश के बच्चों और युवाओं के चरित्र का ठीक-ठीक निर्माण नहीं होगा समाज का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता । समाज का निर्माण व्यक्तियों के चरित्र निर्माण पर निर्भर है ।
इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचकर उन्होंने हस्तिनापुर में ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम नाम से एक चरित्र-निर्मात्री संस्था की स्थापना की । उन्होंने इस आश्रम के लिए केवल चार नियम बनाये---- 1.ब्रह्मचर्य पालन, 2.स्वावलंबन पालन 3.मितव्ययता 4. सेवा ।
नि:सन्देह ये चार नियम ही वे चार स्तम्भ हैं जिन पर जीवन-निर्माण का बड़े से बड़ा भवन खड़ा किया जा सकता है ।
शास्त्रों के अध्ययन के बाद उन्होंने जनसेवा का व्रत लिया । उन्होंने इसकी रुपरेखा निर्धारित करने के लिए विचार करना शुरू किया । वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक देश के बच्चों और युवाओं के चरित्र का ठीक-ठीक निर्माण नहीं होगा समाज का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता । समाज का निर्माण व्यक्तियों के चरित्र निर्माण पर निर्भर है ।
इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचकर उन्होंने हस्तिनापुर में ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम नाम से एक चरित्र-निर्मात्री संस्था की स्थापना की । उन्होंने इस आश्रम के लिए केवल चार नियम बनाये---- 1.ब्रह्मचर्य पालन, 2.स्वावलंबन पालन 3.मितव्ययता 4. सेवा ।
नि:सन्देह ये चार नियम ही वे चार स्तम्भ हैं जिन पर जीवन-निर्माण का बड़े से बड़ा भवन खड़ा किया जा सकता है ।
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