राजा महेन्द्र प्रताप ऐसे महान और निस्पृह देशभक्त थे जिन्होंने राजा होते हुए भी राष्ट्र - सेवा के लिए साधारण और कष्ट का जीवन बिताया । '
मुरसान रियासत के राजकुमार और हाथरस राज्य के दत्तक उत्तराधिकारी राजा महेन्द्र प्रताप भारत माता के उन सपूतों में से हैं जिन्होंने उसकी स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । राजा महेन्द्र प्रताप शिक्षा - दीक्षा के लिए इंग्लैंड गये , वहां रहे किन्तु जैसे ही भारत वापस आये उन्होंने सारी वैदेशिकता झाड़ फेंकी और विशुद्ध भारतीयता में आ गये । उन्हें देशभक्ति के मूल्य पर संसार का कोई भी वैभव और कोई भी सुख - सुविधा स्वीकार नहीं थी ।
उनका कहना था मनुष्य का सच्चा धर्म प्रेम में है और सच्ची सुख - शान्ति समानता में निवास करती है । उनका धर्म मानव - प्रेम था जिसका उद्देश्य एक अविभाजित संसार और विश्व - बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित करना था ।
उन्होंने वृन्दावन में ' प्रेम - महाविद्यालय ' की स्थापना की , इस संस्था को उन्होंने पुत्र की तरह प्रेम किया और इसे अपनी जागीर का बड़ा अंश दान किया । इस महाविद्यालय में पढ़ाई के साथ विद्दार्थियों को लकड़ी , लोहा , बुनाई, फोटोग्राफी , गलीचा बुनना आदि शिल्प कार्यों में से एक अनिवार्य रूप से सिखाया जाता था ।
उनका विश्वास था कि देश के सामान्य स्तर का जीवन ग्रहण किये बिना किसी को भी उसके अभावों , कष्टों और आवश्यकताओं की सच्ची अनुभूति नहीं हो सकती और जब तक सच्ची अनुभूति नहीं होती तब तक सेवा भी सच्चे ह्रदय से नहीं की जा सकती । इसलिए जिस दिन उन्हें देश की दयनीय दशा का बोध हुआ , राजसी जीवन त्यागकर सामान्य - जनों सा जीवन चलाने और समाज सेवा में लग गये ।
मुरसान रियासत के राजकुमार और हाथरस राज्य के दत्तक उत्तराधिकारी राजा महेन्द्र प्रताप भारत माता के उन सपूतों में से हैं जिन्होंने उसकी स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । राजा महेन्द्र प्रताप शिक्षा - दीक्षा के लिए इंग्लैंड गये , वहां रहे किन्तु जैसे ही भारत वापस आये उन्होंने सारी वैदेशिकता झाड़ फेंकी और विशुद्ध भारतीयता में आ गये । उन्हें देशभक्ति के मूल्य पर संसार का कोई भी वैभव और कोई भी सुख - सुविधा स्वीकार नहीं थी ।
उनका कहना था मनुष्य का सच्चा धर्म प्रेम में है और सच्ची सुख - शान्ति समानता में निवास करती है । उनका धर्म मानव - प्रेम था जिसका उद्देश्य एक अविभाजित संसार और विश्व - बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित करना था ।
उन्होंने वृन्दावन में ' प्रेम - महाविद्यालय ' की स्थापना की , इस संस्था को उन्होंने पुत्र की तरह प्रेम किया और इसे अपनी जागीर का बड़ा अंश दान किया । इस महाविद्यालय में पढ़ाई के साथ विद्दार्थियों को लकड़ी , लोहा , बुनाई, फोटोग्राफी , गलीचा बुनना आदि शिल्प कार्यों में से एक अनिवार्य रूप से सिखाया जाता था ।
उनका विश्वास था कि देश के सामान्य स्तर का जीवन ग्रहण किये बिना किसी को भी उसके अभावों , कष्टों और आवश्यकताओं की सच्ची अनुभूति नहीं हो सकती और जब तक सच्ची अनुभूति नहीं होती तब तक सेवा भी सच्चे ह्रदय से नहीं की जा सकती । इसलिए जिस दिन उन्हें देश की दयनीय दशा का बोध हुआ , राजसी जीवन त्यागकर सामान्य - जनों सा जीवन चलाने और समाज सेवा में लग गये ।
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