श्री एंड्रूज को प्रभु ईसा की ओर से प्रेरणा हो रही थी कि ऐसी जगह जाकर काम करो जहाँ मानवता पद - दलित हो रही है । इस प्रकार के सेवा कार्य से जीवन सार्थक हो सकेगा । '
श्री एंड्रूज का जन्म इंग्लैंड में 1872 में हुआ था । पता नहीं क्यों बहुत छोटी आयु से ही उन्हें भारतवर्ष से सहानुभूति हो गई थी और वे उसी समय अपनी माँ से कहा करते थे --- " माँ ! मैं हिंदुस्तान जाऊँगा । " 23 वर्ष की आयु में कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर उन्होंने भारतवर्ष आकर मिशन की नौकरी करने का निश्चय किया ।
भारतवासियों की उन्होंने आजीवन जो सेवाएं की उन्हें देखकर महात्मा गाँधी ने कहा था ---- " श्री एंड्रूज ने जो सेवाएं की हैं उनका अनुमान कर सकना कठिन है । उनके संबंध में यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है कि ' उनका दाहिना हाथ नहीं जनता कि बांयें हाथ ने किसके साथ क्या भलाई की है । "
एंड्रूज का समस्त जीवन ही सेवामय रहा । फिजी के भारतवासियों के उद्धार के लिए उन्होंने जो कार्य किया उसके लिए वे हमारे सबसे बड़े 'देशभक्त ' के सम्मान के अधिकारी हो जाते हैं ।
फिजी में उस समय शर्तबन्द कुली प्रथा प्रचलित थी , इसके अंतर्गत भारत से मजदूरों को बड़े - बड़े लालच देकर फिजी ले जाया जाता था और वहां उन्हें अनिवार्यत रूप से खेतों में काम करना पड़ता था । वहां उनकी हालत गुलामों की सी थी , उन पर बहुत अत्याचार होता था |
इन कष्टों से भी बढ़कर एक बात यह थी कि जितने मजदूर भेजे जाते थे उनमे पुरुष अधिक और स्त्रियाँ कम होतीं थीं । खेतों के मालिक तीन तीन पुरुषों के पीछे एक -एक स्त्री बाँट देते थे । स्त्रियों को खुले तौर पर खरीदा और बेचा जाता था ।
पतिव्रत- धर्म पालन के लिए प्रसिद्ध भारतीय नारियों की की यह दुर्दशा देखकर एंड्रूज साहब की आत्मा तड़प उठी और उन्होंने प्रण कर लिया कि चाहे जान रहे या जाये पर इस अमानुषी प्रथा का अंत जरुर कराएँगे | इसलिए भारत लौटने पर उन्होंने नगर - नगर घूमकर इस घ्रणित प्रथा के विरुद्ध इतना जोरदार आन्दोलन छेड़ दिया कि सरकार भी डर गई । उन्होंने महात्मा गाँधी , ऐनी बीसेंट , मालवीयजी, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि बड़े - बड़े नेताओं को इस आन्दोलन में शामिल करके देश भर में
ऐसी हलचल मचा दी कि सरकार को झुकना पड़ा और ' भारत रक्षा कानून ' के अंतर्गत एक विशेष आज्ञा जारी करके इस प्रथा का अंत कर दिया गया ।
श्री एंड्रूज एक तपस्वी थे , वे जीवन के अंत तक जगह - जगह पहुंचकर पीड़ितों की सेवा करते रहे |
श्री एंड्रूज का जन्म इंग्लैंड में 1872 में हुआ था । पता नहीं क्यों बहुत छोटी आयु से ही उन्हें भारतवर्ष से सहानुभूति हो गई थी और वे उसी समय अपनी माँ से कहा करते थे --- " माँ ! मैं हिंदुस्तान जाऊँगा । " 23 वर्ष की आयु में कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर उन्होंने भारतवर्ष आकर मिशन की नौकरी करने का निश्चय किया ।
भारतवासियों की उन्होंने आजीवन जो सेवाएं की उन्हें देखकर महात्मा गाँधी ने कहा था ---- " श्री एंड्रूज ने जो सेवाएं की हैं उनका अनुमान कर सकना कठिन है । उनके संबंध में यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है कि ' उनका दाहिना हाथ नहीं जनता कि बांयें हाथ ने किसके साथ क्या भलाई की है । "
एंड्रूज का समस्त जीवन ही सेवामय रहा । फिजी के भारतवासियों के उद्धार के लिए उन्होंने जो कार्य किया उसके लिए वे हमारे सबसे बड़े 'देशभक्त ' के सम्मान के अधिकारी हो जाते हैं ।
फिजी में उस समय शर्तबन्द कुली प्रथा प्रचलित थी , इसके अंतर्गत भारत से मजदूरों को बड़े - बड़े लालच देकर फिजी ले जाया जाता था और वहां उन्हें अनिवार्यत रूप से खेतों में काम करना पड़ता था । वहां उनकी हालत गुलामों की सी थी , उन पर बहुत अत्याचार होता था |
इन कष्टों से भी बढ़कर एक बात यह थी कि जितने मजदूर भेजे जाते थे उनमे पुरुष अधिक और स्त्रियाँ कम होतीं थीं । खेतों के मालिक तीन तीन पुरुषों के पीछे एक -एक स्त्री बाँट देते थे । स्त्रियों को खुले तौर पर खरीदा और बेचा जाता था ।
पतिव्रत- धर्म पालन के लिए प्रसिद्ध भारतीय नारियों की की यह दुर्दशा देखकर एंड्रूज साहब की आत्मा तड़प उठी और उन्होंने प्रण कर लिया कि चाहे जान रहे या जाये पर इस अमानुषी प्रथा का अंत जरुर कराएँगे | इसलिए भारत लौटने पर उन्होंने नगर - नगर घूमकर इस घ्रणित प्रथा के विरुद्ध इतना जोरदार आन्दोलन छेड़ दिया कि सरकार भी डर गई । उन्होंने महात्मा गाँधी , ऐनी बीसेंट , मालवीयजी, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि बड़े - बड़े नेताओं को इस आन्दोलन में शामिल करके देश भर में
ऐसी हलचल मचा दी कि सरकार को झुकना पड़ा और ' भारत रक्षा कानून ' के अंतर्गत एक विशेष आज्ञा जारी करके इस प्रथा का अंत कर दिया गया ।
श्री एंड्रूज एक तपस्वी थे , वे जीवन के अंत तक जगह - जगह पहुंचकर पीड़ितों की सेवा करते रहे |
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