वे जाति, धर्म , प्रान्तीयता के भेदों से ऊपर उठकर आश्रम में रहने वाले सभी के सुख - दुःख की सच्ची साथी बन गईं थीं । अपने गुणों के कारण ही गाँधी जी के साथ उन्होंने अपना भी नाम अमर कर लिया , उन्हें ' राष्ट्र - माता की उच्च पदवी दी जाती है । '
बचपन में तो किसी ने बा ( कस्तूरबा ) को पढ़ाया नहीं पर बड़ी उम्र में वातावरण बदल जाने पर उन्हें पढ़ने का शौक हो गया । कभी किसी की मदद से तुलसी रामायण पढ़तीं और कभी गीता का अभ्यास करतीं । अपनी आयु के अंतिम वर्षों में आगाखां महल में कैद रहते हुए वे गाँधी जी से गीता के श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करना सीखती थीं । इन दोनों 75 - 75 वर्ष की आयु के ' शिक्षक और विद्दार्थी ' का द्रश्य देखते ही बनता था । बा जो कुछ सीखना शुरू करतीं थीं , बड़ी श्रद्धा और विनम्रता के साथ सीखतीं । उन्हें कुछ लिखने को दिया जाता , तो छोटे विद्दार्थी जिस प्रकार अपना सबक तैयार कर के लाते हैं , उसी तरह वे भी दूसरे दिन लिखकर लातीं । लिखने में कितनी ही अधिक गलतियाँ क्यों न हों सुधार कर दुबारा लिखने में वे कभी उकताती न थीं ।
गाँधी जी के साथ जब वे दक्षिण अफ्रीका गईं,, वहां स्थित ' फीनिक्स-आश्रम ' में गाँधी जी के सहकारी मि. पोलक की पत्नी भी रहने लगीं तो उनकी संगत में बा को अंग्रेजी बोलने का इतना अभ्यास हो गया कि गाँधी जी से मिलने वाले विदेशी मेहमानों से वे सामान्य बातचीत कर लेती थीं
1930 में जब उनको सत्याग्रह में जेल भेजा गया तो वहां उन्होंने लाभु बहन से अंग्रेजी लिखने और सीखने का प्रयत्न किया । लाभु बहन उनके साथ जेल में थीं , एक संस्मरण में लिखा है ------ " बा को पता चला कि मैं अंग्रेजी जानती हूँ तो उन्होंने मुझसे अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया । अंग्रेजी सीखने में उन्हें कभी कोई हीनता या शर्म महसूस नहीं हुई । उन्हें तो एक ही धुन लगी थी कि स्वयं बापू का पता अंग्रेजी में लिख सकें । A-B-C-D पर लगातार कई दिन मेहनत करने पर और एक ही नाम को 20-25 बार लिखने पर वे कभी थकी नहीं । वे कहा करती थीं ----- " अंग्रेजी आ जाये तो बापू को जो पत्र लिखती हूँ , उसका पता तो किसी से न लिखवाना पड़े और उनके पास जो ढेर डाक आती हैं उसमे से मेरा पत्र खुद ही पहचाना जा सके । "
वे कहती थीं -- पार्वतीजी का प्रण था जन्म - जन्म में शंकर जी ही उनके पति रहेंगे वैसा ही मेरा समझो । श्रीमती गोशी बहन ने बा के निकट रहकर उनकी अन्तरंग भावनाओं का अध्ययन कर यह लिखा था ----- " बा को देखकर हमें इस बात का अन्दाज हो सकता है कि नारीत्व में कितना गौरव और कितना वैभव रहा है l कितनी विविधता , कितनी तेजस्विता और कितना सनातन यौवन ! "
श्रीमती सरोजिनी नायडू ने लिखा है ---- " जिस कठिन मार्ग को उन्होंने अपनाया था , उस पर चलते हुए उनके पैर एक क्षण के लिए भी लड़खड़ाये नहीं । । वे मातृत्व से अमरत्व में गईं और हमारी गाथाओं , गीतों और हमारे इतिहास की वीरांगनाओं की मंडली में अपना वास्तविक स्थान पा गईं । "
बचपन में तो किसी ने बा ( कस्तूरबा ) को पढ़ाया नहीं पर बड़ी उम्र में वातावरण बदल जाने पर उन्हें पढ़ने का शौक हो गया । कभी किसी की मदद से तुलसी रामायण पढ़तीं और कभी गीता का अभ्यास करतीं । अपनी आयु के अंतिम वर्षों में आगाखां महल में कैद रहते हुए वे गाँधी जी से गीता के श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करना सीखती थीं । इन दोनों 75 - 75 वर्ष की आयु के ' शिक्षक और विद्दार्थी ' का द्रश्य देखते ही बनता था । बा जो कुछ सीखना शुरू करतीं थीं , बड़ी श्रद्धा और विनम्रता के साथ सीखतीं । उन्हें कुछ लिखने को दिया जाता , तो छोटे विद्दार्थी जिस प्रकार अपना सबक तैयार कर के लाते हैं , उसी तरह वे भी दूसरे दिन लिखकर लातीं । लिखने में कितनी ही अधिक गलतियाँ क्यों न हों सुधार कर दुबारा लिखने में वे कभी उकताती न थीं ।
गाँधी जी के साथ जब वे दक्षिण अफ्रीका गईं,, वहां स्थित ' फीनिक्स-आश्रम ' में गाँधी जी के सहकारी मि. पोलक की पत्नी भी रहने लगीं तो उनकी संगत में बा को अंग्रेजी बोलने का इतना अभ्यास हो गया कि गाँधी जी से मिलने वाले विदेशी मेहमानों से वे सामान्य बातचीत कर लेती थीं
1930 में जब उनको सत्याग्रह में जेल भेजा गया तो वहां उन्होंने लाभु बहन से अंग्रेजी लिखने और सीखने का प्रयत्न किया । लाभु बहन उनके साथ जेल में थीं , एक संस्मरण में लिखा है ------ " बा को पता चला कि मैं अंग्रेजी जानती हूँ तो उन्होंने मुझसे अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया । अंग्रेजी सीखने में उन्हें कभी कोई हीनता या शर्म महसूस नहीं हुई । उन्हें तो एक ही धुन लगी थी कि स्वयं बापू का पता अंग्रेजी में लिख सकें । A-B-C-D पर लगातार कई दिन मेहनत करने पर और एक ही नाम को 20-25 बार लिखने पर वे कभी थकी नहीं । वे कहा करती थीं ----- " अंग्रेजी आ जाये तो बापू को जो पत्र लिखती हूँ , उसका पता तो किसी से न लिखवाना पड़े और उनके पास जो ढेर डाक आती हैं उसमे से मेरा पत्र खुद ही पहचाना जा सके । "
वे कहती थीं -- पार्वतीजी का प्रण था जन्म - जन्म में शंकर जी ही उनके पति रहेंगे वैसा ही मेरा समझो । श्रीमती गोशी बहन ने बा के निकट रहकर उनकी अन्तरंग भावनाओं का अध्ययन कर यह लिखा था ----- " बा को देखकर हमें इस बात का अन्दाज हो सकता है कि नारीत्व में कितना गौरव और कितना वैभव रहा है l कितनी विविधता , कितनी तेजस्विता और कितना सनातन यौवन ! "
श्रीमती सरोजिनी नायडू ने लिखा है ---- " जिस कठिन मार्ग को उन्होंने अपनाया था , उस पर चलते हुए उनके पैर एक क्षण के लिए भी लड़खड़ाये नहीं । । वे मातृत्व से अमरत्व में गईं और हमारी गाथाओं , गीतों और हमारे इतिहास की वीरांगनाओं की मंडली में अपना वास्तविक स्थान पा गईं । "
No comments:
Post a Comment