बंकिम बाबू उन मनुष्यों में से नहीं थे जो बड़े - बड़े सिद्धान्तों को पुस्तकों में तो लिख देते हैं , पर स्वयं उनके विपरीत आचरण करते हैं । '
अगस्त 1858 में वह डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्य करने लगे । उनके 33 वर्ष के सेवाकाल में कितने ही बड़े खतरे आये किन्तु उन्होंने कभी कर्तव्य - पालन से पैर पीछे नहीं हटाया , और अपने साहस तथा सत्य - निष्ठा के बल पर उसे सफलता पूर्वक पार कर लिया ।
जिस समय बंकिम बाबू बंगाल के खुलना जिले में पदस्थ थे तो वहां उन्होंने नील की खेती करने वाले किसानो पर अंग्रेजों को बड़ा अत्याचार करते देखा । इनमे सबसे मशहूर मारेल साहब था , जिसने मारेलगंज नाम का एक गाँव ही बसा लिया था । वहां पांच - छ : सौ लाठी चलाने वाले आदमी रख लिए थे , जिनके बल पर वह अपना आतंक लोगों पर कायम किये हुए था ।
पर एक गाँव ' बड़खाली ' पर उसका बस नहीं चलता था क्योंकि वहां के लोगों में एकता थी । एक बार किसी बात पर नाराज होकर मारेल साहब ने ' बड़खाली ' गाँव पर धावा बोल दिया । दोनों पक्षों में बड़ा घोर संग्राम हुआ । जब मारेल साहब का दल दबने लगा तो उनके ' दलपति ' हेली साहब ने बन्दूक चलाना शुरू किया और बड़खाली के नेता रहीमुल्ला को मार दिया । बन्दूक के डर से गाँव वाले भाग गये तो मारेल साहब के दल ने गाँव को मनमाना लूटा , औरतों को बेइज्जत किया और घरों को जला दिया ।
इस घटना की खबर जैसे ही बंकिम बाबू को मिली , वे पुलिस का एक दल लेकर ' बड़खाली ' पहुंचे । उनके आने की खबर सुनकर मारेल साहब और हेली साहब अपने साथियों के साथ भाग निकले । तो भी बंकिम बाबू ने उनका पीछा करके कितनो को पकड़ा और एक को फांसी और पच्चीस को काले पानी का दंड दिलाया । इस घटना से अंग्रेजों में खलबली मच गई । उन्हें धमकी भी दी गई पर बंकिम बाबू अपना काम निर्भीकता से करते रहे ।
इसी प्रकार हाबड़ा में एक गरीब बुढ़िया पर म्युनिस्पैलिटी वालों ने व्यर्थ का मुकदमा चलाया , बंकिम बाबू ने उसमे सरकारी अधिकारियों की भूल समझकर बुढ़िया को छोड़ दिया । इससे वहां के कलक्टर बकलैंड बहुत नाराज हुए और उन्होंने बंकिम बाबू के फैसले के विरुद्ध एक टिप्पणी लिख दी , इससे बंकिम बाबू भी बिगड़ उठे कि " आपने किस नियम से मेरे फैसले के विरुद्ध लिखा , आप एक महीने के भीतर मुझसे क्षमा मांगिये और सब कागजात कमिश्नर के पास भेज दीजिये । "
बकलैंड साहब पहले तो अकड़े रहे , पर बंकिम बाबू लगातार उच्च अधिकारियों को लिखते रहे तो उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी ।
उस युग में अंग्रेज स्वयं को श्रेष्ठ समझकर भारतवासियों का बहुत अपमान करते थे , इस अन्याय के विरुद्ध बंकिम बाबू अंग्रेज अफसरों से लड़ जाते थे और अपनी योग्यता और सूझ - बूझ के बल पर उनको परास्त भी कर देते थे । इससे अन्य लोगों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ा और वे अंग्रेजों के मुकाबले अपनी हीनता की वृति को त्यागने लगे ।
अगस्त 1858 में वह डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्य करने लगे । उनके 33 वर्ष के सेवाकाल में कितने ही बड़े खतरे आये किन्तु उन्होंने कभी कर्तव्य - पालन से पैर पीछे नहीं हटाया , और अपने साहस तथा सत्य - निष्ठा के बल पर उसे सफलता पूर्वक पार कर लिया ।
जिस समय बंकिम बाबू बंगाल के खुलना जिले में पदस्थ थे तो वहां उन्होंने नील की खेती करने वाले किसानो पर अंग्रेजों को बड़ा अत्याचार करते देखा । इनमे सबसे मशहूर मारेल साहब था , जिसने मारेलगंज नाम का एक गाँव ही बसा लिया था । वहां पांच - छ : सौ लाठी चलाने वाले आदमी रख लिए थे , जिनके बल पर वह अपना आतंक लोगों पर कायम किये हुए था ।
पर एक गाँव ' बड़खाली ' पर उसका बस नहीं चलता था क्योंकि वहां के लोगों में एकता थी । एक बार किसी बात पर नाराज होकर मारेल साहब ने ' बड़खाली ' गाँव पर धावा बोल दिया । दोनों पक्षों में बड़ा घोर संग्राम हुआ । जब मारेल साहब का दल दबने लगा तो उनके ' दलपति ' हेली साहब ने बन्दूक चलाना शुरू किया और बड़खाली के नेता रहीमुल्ला को मार दिया । बन्दूक के डर से गाँव वाले भाग गये तो मारेल साहब के दल ने गाँव को मनमाना लूटा , औरतों को बेइज्जत किया और घरों को जला दिया ।
इस घटना की खबर जैसे ही बंकिम बाबू को मिली , वे पुलिस का एक दल लेकर ' बड़खाली ' पहुंचे । उनके आने की खबर सुनकर मारेल साहब और हेली साहब अपने साथियों के साथ भाग निकले । तो भी बंकिम बाबू ने उनका पीछा करके कितनो को पकड़ा और एक को फांसी और पच्चीस को काले पानी का दंड दिलाया । इस घटना से अंग्रेजों में खलबली मच गई । उन्हें धमकी भी दी गई पर बंकिम बाबू अपना काम निर्भीकता से करते रहे ।
इसी प्रकार हाबड़ा में एक गरीब बुढ़िया पर म्युनिस्पैलिटी वालों ने व्यर्थ का मुकदमा चलाया , बंकिम बाबू ने उसमे सरकारी अधिकारियों की भूल समझकर बुढ़िया को छोड़ दिया । इससे वहां के कलक्टर बकलैंड बहुत नाराज हुए और उन्होंने बंकिम बाबू के फैसले के विरुद्ध एक टिप्पणी लिख दी , इससे बंकिम बाबू भी बिगड़ उठे कि " आपने किस नियम से मेरे फैसले के विरुद्ध लिखा , आप एक महीने के भीतर मुझसे क्षमा मांगिये और सब कागजात कमिश्नर के पास भेज दीजिये । "
बकलैंड साहब पहले तो अकड़े रहे , पर बंकिम बाबू लगातार उच्च अधिकारियों को लिखते रहे तो उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी ।
उस युग में अंग्रेज स्वयं को श्रेष्ठ समझकर भारतवासियों का बहुत अपमान करते थे , इस अन्याय के विरुद्ध बंकिम बाबू अंग्रेज अफसरों से लड़ जाते थे और अपनी योग्यता और सूझ - बूझ के बल पर उनको परास्त भी कर देते थे । इससे अन्य लोगों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ा और वे अंग्रेजों के मुकाबले अपनी हीनता की वृति को त्यागने लगे ।
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