' तिलक जीवनादर्श ' के लेखक ने लिखा है ----- " आत्मिक बल में वे अद्वितीय थे । तिलक ने आत्मबल से गोरी नौकरशाही को हमेशा नीचा दिखाया । यह आत्मबल तिलक जी ने ' गीता के कर्मयोग ' द्वारा ही प्राप्त किया था । उनके रोम - रोम में बिजली चमकती थी , वे जहाँ पहुँच जाते थे वही स्थान पवित्र हो जाता था और उनके दर्शन से पापी भी नम्र हो जाता था । उनकी प्रतिभा मुर्दे में जान डाल देती थी , जिस किसी के साथ वे वार्तालाप करते थे वह अपने को धन्य समझ लेता था । तिलक पक्के ईश्वर भक्त थे । ईश्वर में उनको पूरा विश्वास था , इसलिए कठिन से कठिन कार्य को अपने सिर पर ले लेते थे और कहते थे कि --- " ईश्वरीय ज्योति ही मेरी मार्गदर्शक है । "
लोकमान्य सच्चे धर्म का पालन करने वाले थे ।
उनका कहना था ---- " साल भर में एक बार शानदार अधिवेशन कर लेना और कुछ प्रस्ताव पास करके फिर साल भर अपने खाने - पीने के धन्धे में लगे रहने से सार्वजनिक सेवा के कोई बड़े काम पूरे नहीं किये जा सकते । हमारा तो यह कहना है कि यह सिद्धांत केवल राजनीतिक सुधारों के लिए ही यथार्थ नहीं है , वरन धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक , नैतिक कैसा भी सुधार क्यों न करना हो उसके लिए सच्चे कार्यकर्ताओं को अपने हित का बलिदान करना ही पड़ता है । प्रतिस्पर्धा , ईर्ष्या - द्वेष और आपसी मतभेद को दूर कर ' कर्म ' करने की आवश्यकता होती है । "
लोकमान्य सच्चे धर्म का पालन करने वाले थे ।
उनका कहना था ---- " साल भर में एक बार शानदार अधिवेशन कर लेना और कुछ प्रस्ताव पास करके फिर साल भर अपने खाने - पीने के धन्धे में लगे रहने से सार्वजनिक सेवा के कोई बड़े काम पूरे नहीं किये जा सकते । हमारा तो यह कहना है कि यह सिद्धांत केवल राजनीतिक सुधारों के लिए ही यथार्थ नहीं है , वरन धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक , नैतिक कैसा भी सुधार क्यों न करना हो उसके लिए सच्चे कार्यकर्ताओं को अपने हित का बलिदान करना ही पड़ता है । प्रतिस्पर्धा , ईर्ष्या - द्वेष और आपसी मतभेद को दूर कर ' कर्म ' करने की आवश्यकता होती है । "
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