भगवान बुद्ध श्रावस्ती गये , वहां के कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने उनके विरुद्ध नया मोर्चा खड़ा कर दिया और कहने लगे ---- " आप चारों वर्णों के उद्धार की बात किस आधार पर करते हैं , क्या ब्राह्मणों के अतिरिक्त धर्म दीक्षा का अधिकार और किसी को है ? "
तथागत मुस्कराये, उन्होंने कहा ----- तात ! क्या आप बता सकते हैं कि ब्राह्मणों की सर्वोपरिता का आधार क्या है ?
आश्वलायन ने उत्तर दिया ---- ज्ञान , तप, साधना , ब्रह्मवर्चस
भगवन बुद्ध ने गंभीरतापूर्वक कहा --- "क्या आप इस बात की पुष्टि करेंगे कि ब्राह्मण चोरी नहीं करते , झूठ नहीं बोलते , व्यभिचार और दूसरी सामाजिक बुराइयाँ वे नहीं करते । "
आश्वलायन ने कहा ---- " यह अवगुण तो ब्राह्मण में भी हैं, किन्तु उनमे धार्मिक संस्कारों की बहुलता रहती है इसलिए वे श्रेष्ठ हैं । "
तथागत ने कहा ---- " फिर आपका कथन यह होना चाहिए कि उक्त अपराध करने पर ब्राह्मण नरक नहीं जायेंगे अर्थात पतित नहीं होंगे जबकि दुष्कर्म करने के कारण अन्य वर्ग पतित समझे जाते हैं । गौतम बुद्ध ने कहा ----- आश्वलायन ! जिस तरह दुष्कर्म का दंड भुगतने के लिए हर प्राणी प्रकृति का दास है , उसी तरह सत्कार्य के पारितोषिक का भी अधिकार हर प्राणी को है फिर चाहे वह किसी भी वर्ण का हो । न तो उपनयन धारण करने से कोई संत और सज्जन हो सकता है , न अग्निहोत्र से, यदि मन स्वच्छ है, अन्तकरण पवित्र है तो ही व्यक्ति संत , सज्जन , त्यागी तपस्वी , उदार हो सकता है । यह उत्तराधिकार नहीं , साधना है ।
तथागत मुस्कराये, उन्होंने कहा ----- तात ! क्या आप बता सकते हैं कि ब्राह्मणों की सर्वोपरिता का आधार क्या है ?
आश्वलायन ने उत्तर दिया ---- ज्ञान , तप, साधना , ब्रह्मवर्चस
भगवन बुद्ध ने गंभीरतापूर्वक कहा --- "क्या आप इस बात की पुष्टि करेंगे कि ब्राह्मण चोरी नहीं करते , झूठ नहीं बोलते , व्यभिचार और दूसरी सामाजिक बुराइयाँ वे नहीं करते । "
आश्वलायन ने कहा ---- " यह अवगुण तो ब्राह्मण में भी हैं, किन्तु उनमे धार्मिक संस्कारों की बहुलता रहती है इसलिए वे श्रेष्ठ हैं । "
तथागत ने कहा ---- " फिर आपका कथन यह होना चाहिए कि उक्त अपराध करने पर ब्राह्मण नरक नहीं जायेंगे अर्थात पतित नहीं होंगे जबकि दुष्कर्म करने के कारण अन्य वर्ग पतित समझे जाते हैं । गौतम बुद्ध ने कहा ----- आश्वलायन ! जिस तरह दुष्कर्म का दंड भुगतने के लिए हर प्राणी प्रकृति का दास है , उसी तरह सत्कार्य के पारितोषिक का भी अधिकार हर प्राणी को है फिर चाहे वह किसी भी वर्ण का हो । न तो उपनयन धारण करने से कोई संत और सज्जन हो सकता है , न अग्निहोत्र से, यदि मन स्वच्छ है, अन्तकरण पवित्र है तो ही व्यक्ति संत , सज्जन , त्यागी तपस्वी , उदार हो सकता है । यह उत्तराधिकार नहीं , साधना है ।
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