' जिन्होंने कर्तव्य का आनन्द परख लिया है , परिश्रम का स्वाद चख लिया है उन्हें काम के सिवाय न तो किसी में आनन्द आ सकता है और न आराम मिल सकता है । '
कुमार जीव का जन्म ईसा की चौथी शताब्दी में हुआ था । कुमार जीव ने चीन में बौद्ध धर्म की शाखा महायान के सिद्धान्तों का प्रचार करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया । उन्होंने महायान की उपशाखा ' सर्वास्तिवाद ' के लगभग सौ ग्रन्थ चीनी भाषा में अनुवादित किये ।
इतना अनुवाद कार्य करने के साथ ही उन्होंने भाषणों , प्रवचनों तथा विचार - विनिमय के द्वारा बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का धुंआधार प्रचार किया । कूची की पराजय के समय गिरफ्तार होने पर उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं हुआ , उन्हें अपनी उस विद्दा पर अखंड विश्वास था जिसे उन्होंने जीवन के सारे सुख छोड़कर प्राप्त किया था । वे जानते थे कि उनकी विशाल विद्दा किसी भी दशा में मित्र की तरह उनकी सहायता करेगी , हुआ भी यही । बंदी की दशा में भी उनका ज्ञान - प्रकाश छिटक - छिटक कर बाहर फैलने लगा जिसने चीन के निवासियों को इस सीमा तक आकर्षित किया कि सरकार को उन पर लगे प्रतिबन्धों को ढीला करना पड़ा ।
निस्पृह कुमार जीव ने संसार को बहुत कुछ दिया किन्तु उन्होंने अपने बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा । उनका कहना था कि --- ' अच्छे कार्यों द्वारा संसार की सेवा करना तो मनुष्य का सामान्य कर्तव्य है फिर उसके लिए परिचय या प्रशस्ति की क्या आवश्यकता ? संसार को लाभ तो हमारे विचारों से होगा न कि हमारे व्यक्तिगत परिचय से । अपने नाम का लोभ लेकर जो काम किया करते हैं वे वास्तव में स्वार्थी होते हैं , परमार्थी नहीं । '
कुमार जीव का जन्म ईसा की चौथी शताब्दी में हुआ था । कुमार जीव ने चीन में बौद्ध धर्म की शाखा महायान के सिद्धान्तों का प्रचार करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया । उन्होंने महायान की उपशाखा ' सर्वास्तिवाद ' के लगभग सौ ग्रन्थ चीनी भाषा में अनुवादित किये ।
इतना अनुवाद कार्य करने के साथ ही उन्होंने भाषणों , प्रवचनों तथा विचार - विनिमय के द्वारा बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का धुंआधार प्रचार किया । कूची की पराजय के समय गिरफ्तार होने पर उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं हुआ , उन्हें अपनी उस विद्दा पर अखंड विश्वास था जिसे उन्होंने जीवन के सारे सुख छोड़कर प्राप्त किया था । वे जानते थे कि उनकी विशाल विद्दा किसी भी दशा में मित्र की तरह उनकी सहायता करेगी , हुआ भी यही । बंदी की दशा में भी उनका ज्ञान - प्रकाश छिटक - छिटक कर बाहर फैलने लगा जिसने चीन के निवासियों को इस सीमा तक आकर्षित किया कि सरकार को उन पर लगे प्रतिबन्धों को ढीला करना पड़ा ।
निस्पृह कुमार जीव ने संसार को बहुत कुछ दिया किन्तु उन्होंने अपने बारे में कहीं कुछ भी नहीं लिखा । उनका कहना था कि --- ' अच्छे कार्यों द्वारा संसार की सेवा करना तो मनुष्य का सामान्य कर्तव्य है फिर उसके लिए परिचय या प्रशस्ति की क्या आवश्यकता ? संसार को लाभ तो हमारे विचारों से होगा न कि हमारे व्यक्तिगत परिचय से । अपने नाम का लोभ लेकर जो काम किया करते हैं वे वास्तव में स्वार्थी होते हैं , परमार्थी नहीं । '
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