' बीमारी उन्हें आलसी नहीं बना सकी , विद्वता उन्हें लोभी नहीं बना सकी , पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर भी वे राग द्वेष से ऊपर उठे रहे । और गांधीजी की तरह गृहस्थी होते हुए भी ब्रह्मचारी बने रहे । जीवन के उत्तरार्द्ध में ब्रह्मचर्य व्रत को अपनाकर एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया । '
महात्मा गाँधी की मृत्यु के पश्चात उनके प्रिय पत्र ' हरिजन ' का संपादन कुशलता से किया । वे गांधीवाद के विश्वस्त और सिद्धहस्त व्याख्याता थे ।
वे जो विचार समाज को देना चाहते थे उसे पहले अपने जीवन में ढाल कर देख लेते थे यदि वह लोकोपयोगी होता था तो उसे जनमानस तक पहुँचाया करते थे । कोई ऐसा - वैसा अनुपयोगी विचार कभी उनकी लेखनी और वाणी के मध्यम से जन - मानस तक नहीं पहुँचा जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो ।
उन्होंने गांधीजी द्वारा प्रेरित कई रचनात्मक संस्थाओं का संचलन किया , पर वे अपना निर्वाह व्यय , जो अति अल्प था एक ही संस्था से लिया करते थे । बाकी संस्थाओं का काम वे अवैतनिक सेवक के रूप में ही किया करते थे । वे कहा करते थे ---- " विचार तो अनमोल होते हैं , उनका मूल्य चुकाना किसी के द्वारा संभव नहीं फिर जो विचार लेखक देता है वे सारे के सारे उसके अपने तो नहीं होते , वह भी तो कहीं से कुछ न कुछ ग्रहण करता है । उसके अन्तस्फूर्त विचार तो ईश्वरीय वरदान होते हैं भला उनका मूल्य लेना और दे सकना कहाँ संभव है । "
उनकी विद्वता , कर्मण्यता , और काम , क्रोध और मोह आदि पर विजय पाये हुए व्यक्तित्व को देखते हुए उनके साथी - सहयोगी उन्हें ' ऋषि - कल्प किशोरलाल भाई ' कहा करते थे ।
महात्मा गाँधी की मृत्यु के पश्चात उनके प्रिय पत्र ' हरिजन ' का संपादन कुशलता से किया । वे गांधीवाद के विश्वस्त और सिद्धहस्त व्याख्याता थे ।
वे जो विचार समाज को देना चाहते थे उसे पहले अपने जीवन में ढाल कर देख लेते थे यदि वह लोकोपयोगी होता था तो उसे जनमानस तक पहुँचाया करते थे । कोई ऐसा - वैसा अनुपयोगी विचार कभी उनकी लेखनी और वाणी के मध्यम से जन - मानस तक नहीं पहुँचा जिससे लाभ के स्थान पर हानि हो ।
उन्होंने गांधीजी द्वारा प्रेरित कई रचनात्मक संस्थाओं का संचलन किया , पर वे अपना निर्वाह व्यय , जो अति अल्प था एक ही संस्था से लिया करते थे । बाकी संस्थाओं का काम वे अवैतनिक सेवक के रूप में ही किया करते थे । वे कहा करते थे ---- " विचार तो अनमोल होते हैं , उनका मूल्य चुकाना किसी के द्वारा संभव नहीं फिर जो विचार लेखक देता है वे सारे के सारे उसके अपने तो नहीं होते , वह भी तो कहीं से कुछ न कुछ ग्रहण करता है । उसके अन्तस्फूर्त विचार तो ईश्वरीय वरदान होते हैं भला उनका मूल्य लेना और दे सकना कहाँ संभव है । "
उनकी विद्वता , कर्मण्यता , और काम , क्रोध और मोह आदि पर विजय पाये हुए व्यक्तित्व को देखते हुए उनके साथी - सहयोगी उन्हें ' ऋषि - कल्प किशोरलाल भाई ' कहा करते थे ।
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