स्वदेशी मन्त्र केवल किसी सामयिक आन्दोलन से सम्बंधित नहीं वरन यह मानव जीवन को सुखी बनाने का राजमार्ग है । इसका असली तात्पर्य है ---- स्वावलम्बी होना । जो लोग इसे संकीर्णता का चिन्ह समझते हैं , या इसका आधार किसी से द्वेष करना मानते हैं , वे भूल करते हैं ।
' स्वदेशी ' का अर्थ है ------- जीवन को सरल तथा आडम्बर शून्य बनाना । हम अपने जीवन निर्वाह की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितने कम पराश्रित होंगे उतना ही हमारा जीवन सुखी हो सकता है ।
जो लोग प्रात: काल उठते ही अपने नाश्ते के लिए दिल्ली की बनी डबल रोटी और डेनमार्क से आया मक्खन चाहते हैं और उसी के अभ्यस्त हो गए हैं , उनको समय - समय पर असुविधा उठानी पड़े तो क्या आश्चर्य है ?
महात्मा गाँधी ने इसी सिद्धान्त को समझकर लोगों से ' खद्दर ' व्यवहार की प्रतिज्ञा करने को कहा था । उनका आशय यही था कि जीवन की दो सबसे बड़ी और दैनिक आवश्यकताएं ----- भोजन और वस्त्र के सम्बन्ध में मनुष्य पूर्ण स्वावलम्बी हो सके तो उसके कष्ट और परेशानियों का बहुत कुछ अंत हो सकता है ।
श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1904 में ' बंग - भंग ' के विरोध करने के लिए ' स्वदेशी समाज ' की थी । इसके सदस्य प्रतिज्ञा करते थे कि स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे । इतना ही नहीं शिक्षा , दीक्षा , साहित्य , समाज आदि सभी विषयों में ' निजत्व ' की भावना को ही प्रधानता देंगे ।
यह संस्था बहुत शीघ्र सुद्रढ़ होकर समस्त प्रान्तों में फैल गई l हजारों व्यक्ति उसमे सम्मिलित होने लगे । पर जब ' बंग - भंग ' के विरुद्ध किया गया सब आन्दोलन , विरोध और प्रार्थनाएं आदि असफल सिद्ध हो गये तो लोगों ने 16 अक्टूबर को सरकारी आदेश के प्रचारित होते ही राजधानी कलकत्ता में एक विशाल जुलूस निकाला, जिसके प्रधान संचालक महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर थे ।
वह जुलूस महाकवि का " विधिर बंधन काटिवे तुमि एमनि शक्तिमान " ( क्या तुम ऐसे शक्तिशाली हो कि विधाता द्वारा निर्मित सम्बन्ध का भी विच्छेद कर दोगे ? ) गीत गाता हुआ समस्त नगर में घूमा और लाखों व्यक्तियों ने गंगा स्नान करके परस्पर राखी बांधकर यह प्रतिज्ञा की कि ऐसे अन्यायपूर्ण आदेश को कदापि स्वीकार न किया जायेगा ।
स्वदेशी की भावना ने थोड़े ही समय में इतनी जड़ जमा ली कि देश का वस्त्र व्यवसाय और अन्य व्यवसाय पनपने लगे और विलायती माल का आयात दिन पर दिन कम होने लगा । स्वदेशी स्कूल, स्वदेशी कॉलेज , स्वदेशी बैंक , स्वदेशी नेशनल फंड आदि की धूम मच गई और लोगों में स्वदेशी की एक नई भावना का उदय हुआ l
अंग्रेज अधिकारियों ने तो यह कार्य भारतवासियों में फूट उत्पन्न करने के लिए किया था जिससे उन्हें निर्बल बनाया जा सके लेकिन परिणाम उल्टा हुआ । । उस दिन से जनता में जो नई चेतना उत्पन्न हुई और राजनीतिक आन्दोलन छेड़ा गया वह अंत में भारत को विदेशियों के पंजे से मुक्त करा के ही समाप्त हुआ ।
' स्वदेशी ' का अर्थ है ------- जीवन को सरल तथा आडम्बर शून्य बनाना । हम अपने जीवन निर्वाह की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितने कम पराश्रित होंगे उतना ही हमारा जीवन सुखी हो सकता है ।
जो लोग प्रात: काल उठते ही अपने नाश्ते के लिए दिल्ली की बनी डबल रोटी और डेनमार्क से आया मक्खन चाहते हैं और उसी के अभ्यस्त हो गए हैं , उनको समय - समय पर असुविधा उठानी पड़े तो क्या आश्चर्य है ?
महात्मा गाँधी ने इसी सिद्धान्त को समझकर लोगों से ' खद्दर ' व्यवहार की प्रतिज्ञा करने को कहा था । उनका आशय यही था कि जीवन की दो सबसे बड़ी और दैनिक आवश्यकताएं ----- भोजन और वस्त्र के सम्बन्ध में मनुष्य पूर्ण स्वावलम्बी हो सके तो उसके कष्ट और परेशानियों का बहुत कुछ अंत हो सकता है ।
श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1904 में ' बंग - भंग ' के विरोध करने के लिए ' स्वदेशी समाज ' की थी । इसके सदस्य प्रतिज्ञा करते थे कि स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे । इतना ही नहीं शिक्षा , दीक्षा , साहित्य , समाज आदि सभी विषयों में ' निजत्व ' की भावना को ही प्रधानता देंगे ।
यह संस्था बहुत शीघ्र सुद्रढ़ होकर समस्त प्रान्तों में फैल गई l हजारों व्यक्ति उसमे सम्मिलित होने लगे । पर जब ' बंग - भंग ' के विरुद्ध किया गया सब आन्दोलन , विरोध और प्रार्थनाएं आदि असफल सिद्ध हो गये तो लोगों ने 16 अक्टूबर को सरकारी आदेश के प्रचारित होते ही राजधानी कलकत्ता में एक विशाल जुलूस निकाला, जिसके प्रधान संचालक महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर थे ।
वह जुलूस महाकवि का " विधिर बंधन काटिवे तुमि एमनि शक्तिमान " ( क्या तुम ऐसे शक्तिशाली हो कि विधाता द्वारा निर्मित सम्बन्ध का भी विच्छेद कर दोगे ? ) गीत गाता हुआ समस्त नगर में घूमा और लाखों व्यक्तियों ने गंगा स्नान करके परस्पर राखी बांधकर यह प्रतिज्ञा की कि ऐसे अन्यायपूर्ण आदेश को कदापि स्वीकार न किया जायेगा ।
स्वदेशी की भावना ने थोड़े ही समय में इतनी जड़ जमा ली कि देश का वस्त्र व्यवसाय और अन्य व्यवसाय पनपने लगे और विलायती माल का आयात दिन पर दिन कम होने लगा । स्वदेशी स्कूल, स्वदेशी कॉलेज , स्वदेशी बैंक , स्वदेशी नेशनल फंड आदि की धूम मच गई और लोगों में स्वदेशी की एक नई भावना का उदय हुआ l
अंग्रेज अधिकारियों ने तो यह कार्य भारतवासियों में फूट उत्पन्न करने के लिए किया था जिससे उन्हें निर्बल बनाया जा सके लेकिन परिणाम उल्टा हुआ । । उस दिन से जनता में जो नई चेतना उत्पन्न हुई और राजनीतिक आन्दोलन छेड़ा गया वह अंत में भारत को विदेशियों के पंजे से मुक्त करा के ही समाप्त हुआ ।
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