लाला लाजपतराय का कहना था ----- " अपनी थोड़ी सी शारीरिक अथवा आर्थिक हानि कर के यदि पीड़ित मानवता की सेवा की जा सकती है तो मैं इसे सस्ता सौदा ही समझता हूँ | परमार्थ में यदि मेरे प्राण भी चले जाते तब भी मैं अपने को धन्य ही मानता । "
हिसार में आकर लालाजी को पता चला कि म्युनिसिपेलिटी में मंत्री का स्थान रिक्त है तो उन्होंने उस स्थान के लिए अपनी अवैतनिक सेवाएं समर्पित कर दीं ।
लालाजी अपने कर्तव्य पालन में नि:स्वार्थ थे , अवसर होने पर भी अपने पद और प्रभाव के आधार पर सस्ती जमीन जायदाद का लाभ नहीं उठाया और अवसरवादी सम्बन्धियों को भी अनुचित लाभ नहीं उठाने दिया । जबकि न जाने कितने निवास रहित परिवारों को स्थान -स्थान पर चुंगी की जमीन पर मकान बना लेने की अनुमति दिलवायी और किराया भी नाम मात्र का स्वीकृत कराया जनहित कार्यों से लालाजी हिसार में बहुत लोकप्रिय हो गए । उन्होंने लोगों का ध्यान अनाथों की दशा की और आकर्षित किया और उनके लिए एक अनाथालय और एक उद्दोग स्थापित करने का प्रस्ताव किया । इस प्रस्ताव को समर्थन भी मिला और तुरंत उसे कार्यान्वित भी कर दिया । अनाथालय और अनाथों के लिए उद्दोग की स्थापना ने समाज के न जाने कितने लालों को आश्रय दिया । उनके तन - पेट का जब पालन होने लगा तो उनकी दुःखी आत्माओं ने सुखी होकर लालाजी को जो मौन आशीष दी होगी उसका फल सौ साल की साधना से भी अधिक रहा होगा ।
' लालाजी के आगामी यशस्वी कामों की प्रेरणा और सफलता में अनाथों की मौन आत्माओं का योगदान रहा होगा , परमार्थ के इस रहस्य को कोई उपकारी ही जान सकता है ।
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