लोकमान्य तिलक वास्तव में एक महान आत्मा थे । उन्होंने अपने जीवन के आरम्भ से ही देश सेवा और भारतीय जनता के मार्गदर्शन का जो व्रत ग्रहण था उसे अंतिम क्षण तक यथार्थ रूप में निबाहा । उनमे कोई ऐसी शक्ति उत्पन्न हो गई थी जिसके प्रभाव से भारत की जनता , यहाँ के सभी क्षेत्रों के नेता और राजपुरुष उनका लोहा मानते थे ।
ब्रिटिश गवर्नमेंट उनसे इतना डरती थी कि सदा उनके पीछे कोई न कोई मुकदमा, जेल , निर्वासन आदि की सजा लगाती ही रहती थी । उनके जीवन - चरित्र लेखकों ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है ------- " भारत के लिए तमाम यातनाएं , शान्ति और धैर्य के साथ उन्होंने सहन की । पर एक तपस्वी की तरह ऐसी प्रचंड अग्नि परीक्षाओं में तप कर निरंतर चमकते ही गए ।
जिस समय 1908 में उन पर राजद्रोह का प्रसिद्ध मुकदमा चल रहा था , उस समय नौकरशाही यही चाह रही थी कि किसी प्रकार तिलक महाराज दब जाएँ , क्षमा मांग लें । पर वे तो सच्चे शूरमा थे जो रणक्षेत्र में शत्रु पर चोट करने और उसके प्रहारों को सहन करने में ही आनंद अनुभव करते थे । उस मुकदमे में उन्होंने अपने विचारों तथा कार्यों को न्याय युक्त सिद्ध करने के लिए स्वयं ही पैरवी की और 21 घंटे तक सिंह की तरह गरज कर भाषण करते रहे । उस समय जान पड़ता था कि एक तपस्वी अपने तपोबल से राजाओं का सिंहासन हिला दे सहता है । साधन और शक्ति संपन्न अंग्रेजी सरकार उनकी दैवी शक्ति से घबरा गई और मनमाना फैसला करके देश से बाहर भेज दिया । इससे बालक से लेकर वृद्ध वे सभी के सम्मानीय और गले का हार बन गए ।
ब्रिटिश गवर्नमेंट उनसे इतना डरती थी कि सदा उनके पीछे कोई न कोई मुकदमा, जेल , निर्वासन आदि की सजा लगाती ही रहती थी । उनके जीवन - चरित्र लेखकों ने मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है ------- " भारत के लिए तमाम यातनाएं , शान्ति और धैर्य के साथ उन्होंने सहन की । पर एक तपस्वी की तरह ऐसी प्रचंड अग्नि परीक्षाओं में तप कर निरंतर चमकते ही गए ।
जिस समय 1908 में उन पर राजद्रोह का प्रसिद्ध मुकदमा चल रहा था , उस समय नौकरशाही यही चाह रही थी कि किसी प्रकार तिलक महाराज दब जाएँ , क्षमा मांग लें । पर वे तो सच्चे शूरमा थे जो रणक्षेत्र में शत्रु पर चोट करने और उसके प्रहारों को सहन करने में ही आनंद अनुभव करते थे । उस मुकदमे में उन्होंने अपने विचारों तथा कार्यों को न्याय युक्त सिद्ध करने के लिए स्वयं ही पैरवी की और 21 घंटे तक सिंह की तरह गरज कर भाषण करते रहे । उस समय जान पड़ता था कि एक तपस्वी अपने तपोबल से राजाओं का सिंहासन हिला दे सहता है । साधन और शक्ति संपन्न अंग्रेजी सरकार उनकी दैवी शक्ति से घबरा गई और मनमाना फैसला करके देश से बाहर भेज दिया । इससे बालक से लेकर वृद्ध वे सभी के सम्मानीय और गले का हार बन गए ।
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