स्वामी रामतीर्थ ( जन्म 1873 ) का नाम तीर्थराम था l बाल्यकाल से ही उनमे विद्दा - अध्ययन की अटूट लगन थी l विद्दार्थी जीवन में उन्हें बड़ी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा l जब
एम. एस -सी. गणित में वे सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण हुए तो उनके प्रिन्सीपल ने कहा --- " तुम्हारा नाम सिविल सर्विस परीक्षा के लिए दे रहा हूँ l " तो उनकी आँखों में आंसू भर आये , वे बोले ----- "मैंने इतनी मेहनत से ज्ञान का जो खजाना पाया है उसे धनवान बनने के लिए खर्च नहीं करना चाहता l उच्च पदों पर आसीन रहकर मैं अपनी इस प्रतिभा का क्या उपयोग करूँगा ? मैंने तो यह ज्ञान इसलिए कमाया कि इस दौलत को बांटकर अपने आपको तथा औरों को सुखी बनाऊँ l "
उन्होंने अध्यापक बनना पसंद किया l बाद में नौकरी को छोड़कर उन्होंने संन्यास ले लिया और वेदान्त प्रचार करने लगे l
स्वामीजी का व्यक्तित्व प्रभावी था जिसका प्रभाव लोगों पर पड़ता था l स्वयं रामतीर्थ की स्वयं यह मान्यता रही कि---- जितना तुम बोलते हो उससे ज्यादा तुम्हारा व्यक्तित्व सुना जाता है l स्वामीजी ने वेदान्त को जो अब तक चर्चा और परिसंवाद का विषय ही समझा जाता था , अपने जीवन और आचरण में उतार कर अपने व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी और प्रखर बना लिया था कि उसके आगे हर कोई नत मस्तक हो जाता था l
एम. एस -सी. गणित में वे सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण हुए तो उनके प्रिन्सीपल ने कहा --- " तुम्हारा नाम सिविल सर्विस परीक्षा के लिए दे रहा हूँ l " तो उनकी आँखों में आंसू भर आये , वे बोले ----- "मैंने इतनी मेहनत से ज्ञान का जो खजाना पाया है उसे धनवान बनने के लिए खर्च नहीं करना चाहता l उच्च पदों पर आसीन रहकर मैं अपनी इस प्रतिभा का क्या उपयोग करूँगा ? मैंने तो यह ज्ञान इसलिए कमाया कि इस दौलत को बांटकर अपने आपको तथा औरों को सुखी बनाऊँ l "
उन्होंने अध्यापक बनना पसंद किया l बाद में नौकरी को छोड़कर उन्होंने संन्यास ले लिया और वेदान्त प्रचार करने लगे l
स्वामीजी का व्यक्तित्व प्रभावी था जिसका प्रभाव लोगों पर पड़ता था l स्वयं रामतीर्थ की स्वयं यह मान्यता रही कि---- जितना तुम बोलते हो उससे ज्यादा तुम्हारा व्यक्तित्व सुना जाता है l स्वामीजी ने वेदान्त को जो अब तक चर्चा और परिसंवाद का विषय ही समझा जाता था , अपने जीवन और आचरण में उतार कर अपने व्यक्तित्व को इतना तेजस्वी और प्रखर बना लिया था कि उसके आगे हर कोई नत मस्तक हो जाता था l
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