दादाभाई नौरोजी के पिता का जिस समय देहान्त हुआ उस समय दादाभाई की आयु मात्र चार वर्ष थी l उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी l पारसियों में विधवा विवाह की व्यवस्था है , लेकिन उनकी माता माणिकबाई ने पुनर्विवाह करना उचित न समझा और आजीवन विधवा रहकर , अपने परिश्रम के बल पर अपनी एकमात्र संतान दादाभाई को पढ़ा - लिखाकर योग्य बनाने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझी l
दादाभाई ने अपनी माता का चरित्र - चित्रण करते हुए लिखा है --- " मेरी माता पचास वर्ष तक मेरी सहायिका और प्रेरणा - केंद्र बनी रहीं l अपने आचरण में आज मैं जिस प्रकाश के दर्शन कर रहा हूँ , वह मेरी ममतामयी माता का ही फैलाया हुआ है l यद्दपि वे निरक्षर थीं लेकिन उन्होंने मेरी शिक्षा - दीक्षा के प्रबंध के लिए अथक परिश्रम किया l उन्होंने न केवल मुझे प्रेम ही किया , बल्कि कड़ाई के साथ मुझ पर शासन रखते हुए अनुशासन की शिक्षा भी दी l
स्त्री - शिक्षा के लिए मैं जो कुछ कर सका , उसमे उनका महान सहयोग सम्मिलित रहा l समाज के अन्धविश्वास और विकृतियों को दूर करने में वे सदा ही मेरी सहायिका बनी रहीं l "
शताब्दियों से पिछड़े समाज में स्त्री - शिक्षा का विचार सर्वथा नया था l दादाभाई ने इस संबंध में अपने संस्मरण बताते हुए लिखा है --- " बहु - बेटियों को पढ़ाने की बात सुनकर लोग बहुत क्रुद्ध होते , कई बार मकान की सीढ़ियों से धक्का तक दे दिया l " लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी l अपने सहयोगियों के साथ वे द्वार - द्वार और घर - घर तक जाते और माता - पिताओं से प्रार्थना करते कि अपनी लड़कियों को कहीं भेजने की जरुरत नहीं , अपनी बैठक , बरामदे अथवा द्वार पर पढ़ाने की अनुमति दें l सच्ची सेवा भावना में बड़ी प्रेरणा होती है , धीरे - धीरे उत्साह बढ़ा और स्त्री शिक्षा का प्रचार हुआ l
दादाभाई ने अपनी माता का चरित्र - चित्रण करते हुए लिखा है --- " मेरी माता पचास वर्ष तक मेरी सहायिका और प्रेरणा - केंद्र बनी रहीं l अपने आचरण में आज मैं जिस प्रकाश के दर्शन कर रहा हूँ , वह मेरी ममतामयी माता का ही फैलाया हुआ है l यद्दपि वे निरक्षर थीं लेकिन उन्होंने मेरी शिक्षा - दीक्षा के प्रबंध के लिए अथक परिश्रम किया l उन्होंने न केवल मुझे प्रेम ही किया , बल्कि कड़ाई के साथ मुझ पर शासन रखते हुए अनुशासन की शिक्षा भी दी l
स्त्री - शिक्षा के लिए मैं जो कुछ कर सका , उसमे उनका महान सहयोग सम्मिलित रहा l समाज के अन्धविश्वास और विकृतियों को दूर करने में वे सदा ही मेरी सहायिका बनी रहीं l "
शताब्दियों से पिछड़े समाज में स्त्री - शिक्षा का विचार सर्वथा नया था l दादाभाई ने इस संबंध में अपने संस्मरण बताते हुए लिखा है --- " बहु - बेटियों को पढ़ाने की बात सुनकर लोग बहुत क्रुद्ध होते , कई बार मकान की सीढ़ियों से धक्का तक दे दिया l " लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी l अपने सहयोगियों के साथ वे द्वार - द्वार और घर - घर तक जाते और माता - पिताओं से प्रार्थना करते कि अपनी लड़कियों को कहीं भेजने की जरुरत नहीं , अपनी बैठक , बरामदे अथवा द्वार पर पढ़ाने की अनुमति दें l सच्ची सेवा भावना में बड़ी प्रेरणा होती है , धीरे - धीरे उत्साह बढ़ा और स्त्री शिक्षा का प्रचार हुआ l
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