' दिवस - रात्रि , शाम - सुबह , शिशिर - वसंत जीवन में कितनी बार आये और गए l काल ने आयु को भी समाप्त कर दिया किन्तु तृष्णा समाप्त न हुई l "
घटना उन दिनों की है जब आचार्य शंकर ऋषि व्यास के सूत्रों की चर्चा हेतु काशी के पास एक गाँव में शिव मंदिर में ठहरे हुए थे l एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि एक वृद्ध सज्जन आपसे मिलना चाहते हैं l आचार्य ने कहा --- " उन्हें आदर पूर्वक ले आओ l " शिष्य उन्हें लेकर आचार्य के समीप उपस्थित हुए l आचार्य ने देखा , वे अति वृद्ध थे , झुकी हुई कमर , दन्त विहीन मुख , कमजोर शरीर और वे हाथ में एक पुस्तक पकड़े हुए थे l
वृद्ध ने आचार्य से कहा --- " आचार्य ! यह व्याकरण की पुस्तक है l आप परम विद्वान् हैं l मुझे व्याकरण का ज्ञान दें l " इस पर आचार्य ने उनसे कहा --- " इस आयु में आपके सीखने की इच्छा प्रशंसनीय है l यदि आप केवल व्याकरण सीखना चाहते हैं तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें , परन्तु ज्ञान का यथार्थ चितशुद्धि में है l "
वृद्ध अपनी ही धुन में था , बोला --- " मैं व्याकरण सीखूंगा , फिर शास्त्रों का अध्ययन करूँगा l शास्त्रों को समझकर मैं पंडित , फिर महापंडित बनूँगा l तब मुझे विद्वानों से शास्त्रार्थ करने का मौका मिलेगा l शास्त्रार्थ में विजयी होने पर जन - जन में मेरा सम्मान होगा l लोग मुझे शास्त्रार्थ महारथी , तर्क शिरोमणि , महामहोपाध्याय कहेंगे l ऐसी स्थिति में मुझे ज्ञानी वृद्ध कहा और समझा जायेगा l "
इस क्षीणकाय, कांपते हुए वृद्ध की मनोदशा पर आचार्य को करुणा हो आई , वे इस वृद्ध को जीवन की सही राह दिखाना चाहते थे l उन्होंने कहा ---- " इतनी आयु होने पर इतनी आशाएं ! इतनी अधिक महत्वाकांक्षाएं , कैसी है ये तृष्णा ? अरे ! ज्ञान शब्दों में नहीं , ज्ञान आकांक्षाओं और अहंकार के पोषण में नहीं , बल्कि इनके विनाश में है l " उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की -- हे प्रभु ! इस प्राणी का उद्धार कर l फिर वे उससे कहने लगे --- " काल ने तुम्हारी आयु को समाप्त कर दिया , किन्तु तुम्हारी तृष्णा समाप्त नहीं हुई l अरे ! मूढ़ ! मरण समीप आने पर यह व्याकरण काम नहीं आएगा , अब तुम गोविन्द का भजन करो , भक्ति करो l "
आचार्य शंकर के मुख से भक्ति की महिमा सुन के उस वृद्ध को चेत हुआ l शिष्यों ने भी भक्ति की महिमा को जाना l
घटना उन दिनों की है जब आचार्य शंकर ऋषि व्यास के सूत्रों की चर्चा हेतु काशी के पास एक गाँव में शिव मंदिर में ठहरे हुए थे l एक शिष्य ने आकर सूचना दी कि एक वृद्ध सज्जन आपसे मिलना चाहते हैं l आचार्य ने कहा --- " उन्हें आदर पूर्वक ले आओ l " शिष्य उन्हें लेकर आचार्य के समीप उपस्थित हुए l आचार्य ने देखा , वे अति वृद्ध थे , झुकी हुई कमर , दन्त विहीन मुख , कमजोर शरीर और वे हाथ में एक पुस्तक पकड़े हुए थे l
वृद्ध ने आचार्य से कहा --- " आचार्य ! यह व्याकरण की पुस्तक है l आप परम विद्वान् हैं l मुझे व्याकरण का ज्ञान दें l " इस पर आचार्य ने उनसे कहा --- " इस आयु में आपके सीखने की इच्छा प्रशंसनीय है l यदि आप केवल व्याकरण सीखना चाहते हैं तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें , परन्तु ज्ञान का यथार्थ चितशुद्धि में है l "
वृद्ध अपनी ही धुन में था , बोला --- " मैं व्याकरण सीखूंगा , फिर शास्त्रों का अध्ययन करूँगा l शास्त्रों को समझकर मैं पंडित , फिर महापंडित बनूँगा l तब मुझे विद्वानों से शास्त्रार्थ करने का मौका मिलेगा l शास्त्रार्थ में विजयी होने पर जन - जन में मेरा सम्मान होगा l लोग मुझे शास्त्रार्थ महारथी , तर्क शिरोमणि , महामहोपाध्याय कहेंगे l ऐसी स्थिति में मुझे ज्ञानी वृद्ध कहा और समझा जायेगा l "
इस क्षीणकाय, कांपते हुए वृद्ध की मनोदशा पर आचार्य को करुणा हो आई , वे इस वृद्ध को जीवन की सही राह दिखाना चाहते थे l उन्होंने कहा ---- " इतनी आयु होने पर इतनी आशाएं ! इतनी अधिक महत्वाकांक्षाएं , कैसी है ये तृष्णा ? अरे ! ज्ञान शब्दों में नहीं , ज्ञान आकांक्षाओं और अहंकार के पोषण में नहीं , बल्कि इनके विनाश में है l " उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की -- हे प्रभु ! इस प्राणी का उद्धार कर l फिर वे उससे कहने लगे --- " काल ने तुम्हारी आयु को समाप्त कर दिया , किन्तु तुम्हारी तृष्णा समाप्त नहीं हुई l अरे ! मूढ़ ! मरण समीप आने पर यह व्याकरण काम नहीं आएगा , अब तुम गोविन्द का भजन करो , भक्ति करो l "
आचार्य शंकर के मुख से भक्ति की महिमा सुन के उस वृद्ध को चेत हुआ l शिष्यों ने भी भक्ति की महिमा को जाना l
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