आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' प्रतिभा की , कला की , कुशलता की , विद्दा - ज्ञान - शक्ति व सामर्थ्य की इस सृष्टि में कमी नहीं है l अनेकों ने अनेक तरीकों से इनका अर्जन किया है , परन्तु इनमें से किसी का भी वे सदुपयोग नहीं कर पा रहे l सारा ज्ञान , उनकी समूची सामर्थ्य उनके अहंकार की तुष्टि , उनके लिए भोग - विलास के संसाधन जुटाने में खप रही है l जहाँ ऐसा हो रहा है वहां समझो असुरता का बोलबाला है l असुरों से श्रेष्ठ तपस्वी इस सृष्टि में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलते , परन्तु उनके तप का परिणाम सदा ही विनाशक होता है l '
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान में हुए भीषण विध्वंस के बाद आइंस्टीन ने विश्व की सर्वोच्च वैज्ञानिक प्रयोगशाला से संन्यास ले लिया और एक छोटे से बाल विद्दालय में बच्चों को पढ़ाने लगे l उनका कहना था कि उनकी ऐसी मंशा नहीं थी , यह आविष्कार तो इसलिए किया था कि परमाणु ऊर्जा से नगर - ग्राम जगमगा उठेंगे l
जब जापान के वैज्ञानिकों का एक प्रतिनिधि मंडल पहुंचा , तो उन्होंने महान वैज्ञानिक को एक ऋषि के रूप में देखा l आइन्स्टीन ने उनको विद्दालय घुमाना शुरू किया तो प्रतिनिधि मंडल के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि क्या यह आपकी प्रतिभा का दुरूपयोग नहीं हो रहा है ?
आइन्स्टीन ने कहा ---- " प्रतिभा के बारे में बहुत भ्रम फ़ैल गया है , मित्र l प्रतिभावान वह नहीं है जिसने कोई बड़ा पद हथिया लिया है , जिसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताएं बढ़ी - चढ़ी हों l एक शर्त यह भी कि उसकी दिशा क्या है l दिशा विहीनता की स्थिति में व्यक्ति क्षमतावान तो हो सकता है , किन्तु प्रतिभावान नहीं l अंतर् उतना ही है जितना वेग गति में l उन्होंने भौतिक विज्ञान की भाषा में समझाया l सामर्थ्य दोनों में है , क्रियाशील भी दोनों हैं पर एक को गंतव्य का कोई पता ठिकाना नहीं और दूसरा प्रतिपल अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है l
क्षमताएं सभी के पास हैं , इनके वेग को सृजन की और बढ़ती गति में बदलकर हर कोई प्रतिभाशाली बन सकता है l "
प्रश्नकर्ता ने पूछा --- आपकी प्रतिभा का उपयोग ----- ?
उनका कहना था ---- " वह तो मैं मानवीय जीवन की प्रथम आवश्यकता की पूर्ति में कर रहा हूँ l प्रथम आवश्यकता स्वादिष्ट भोजन , सुख - सुविधाएँ , अणु , परमाणु , रॉकेट लांचर आदि नहीं है l जीवन की प्रथम आवश्यकता है , जीवन कैसे जिया जाये , इस बात की जानकारी l समूची जिंदगी कैसे अनेक सद्गुणों की सुरभि बिखेरने वाला गुलदस्ता कैसे बने , इस बात का पता l
इसके बिना सभी कुछ बन्दर के हाथ में उस्तरे जैसा है , जिसका उपयोग वह सिवा अपनी और दूसरों की नाक काटने के और कुछ नहीं करेगा l अच्छा हो बन्दर पहले नाई बने फिर उस्तरा पकडे l अभी तक के अनुभव के आधार पर प्रतिभा का जो स्वरुप समझ में आया है , वह है प्रकाश की ओर गतिमान जीवन l उसी के अनुरूप इन बच्चों को प्रतिभाशाली बना रहा हूँ l उन्हें मनुष्य होने का शिक्षण दे रहा हूँ l " ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' l
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान में हुए भीषण विध्वंस के बाद आइंस्टीन ने विश्व की सर्वोच्च वैज्ञानिक प्रयोगशाला से संन्यास ले लिया और एक छोटे से बाल विद्दालय में बच्चों को पढ़ाने लगे l उनका कहना था कि उनकी ऐसी मंशा नहीं थी , यह आविष्कार तो इसलिए किया था कि परमाणु ऊर्जा से नगर - ग्राम जगमगा उठेंगे l
जब जापान के वैज्ञानिकों का एक प्रतिनिधि मंडल पहुंचा , तो उन्होंने महान वैज्ञानिक को एक ऋषि के रूप में देखा l आइन्स्टीन ने उनको विद्दालय घुमाना शुरू किया तो प्रतिनिधि मंडल के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि क्या यह आपकी प्रतिभा का दुरूपयोग नहीं हो रहा है ?
आइन्स्टीन ने कहा ---- " प्रतिभा के बारे में बहुत भ्रम फ़ैल गया है , मित्र l प्रतिभावान वह नहीं है जिसने कोई बड़ा पद हथिया लिया है , जिसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताएं बढ़ी - चढ़ी हों l एक शर्त यह भी कि उसकी दिशा क्या है l दिशा विहीनता की स्थिति में व्यक्ति क्षमतावान तो हो सकता है , किन्तु प्रतिभावान नहीं l अंतर् उतना ही है जितना वेग गति में l उन्होंने भौतिक विज्ञान की भाषा में समझाया l सामर्थ्य दोनों में है , क्रियाशील भी दोनों हैं पर एक को गंतव्य का कोई पता ठिकाना नहीं और दूसरा प्रतिपल अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है l
क्षमताएं सभी के पास हैं , इनके वेग को सृजन की और बढ़ती गति में बदलकर हर कोई प्रतिभाशाली बन सकता है l "
प्रश्नकर्ता ने पूछा --- आपकी प्रतिभा का उपयोग ----- ?
उनका कहना था ---- " वह तो मैं मानवीय जीवन की प्रथम आवश्यकता की पूर्ति में कर रहा हूँ l प्रथम आवश्यकता स्वादिष्ट भोजन , सुख - सुविधाएँ , अणु , परमाणु , रॉकेट लांचर आदि नहीं है l जीवन की प्रथम आवश्यकता है , जीवन कैसे जिया जाये , इस बात की जानकारी l समूची जिंदगी कैसे अनेक सद्गुणों की सुरभि बिखेरने वाला गुलदस्ता कैसे बने , इस बात का पता l
इसके बिना सभी कुछ बन्दर के हाथ में उस्तरे जैसा है , जिसका उपयोग वह सिवा अपनी और दूसरों की नाक काटने के और कुछ नहीं करेगा l अच्छा हो बन्दर पहले नाई बने फिर उस्तरा पकडे l अभी तक के अनुभव के आधार पर प्रतिभा का जो स्वरुप समझ में आया है , वह है प्रकाश की ओर गतिमान जीवन l उसी के अनुरूप इन बच्चों को प्रतिभाशाली बना रहा हूँ l उन्हें मनुष्य होने का शिक्षण दे रहा हूँ l " ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' l
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