22 May 2020

WISDOM -----

   कथा  है  ---- राजा  भोज   अपने  रथ  से  उद्दान   की  ओर   जा  रहे  थे  ,  तभी  उस  काल  के   योगी , तपस्वी  , गायत्री  सिद्ध  साधक  गोविन्द   को  देखकर  उन्होंने  रथ  रोकने  का  आदेश  दिया  और  रथ  से  उतरकर   राजा  ने  योगी  का  अभिवादन  किया  l   गोविन्द  ने  राजा  के  अभिवादन  का  उत्तर  न  देते  हुए   अपनी  दोनों  आँखें  मूँद   ली  l   गोविन्द  की  प्रतिक्रिया  से  विस्मित  राजा  ने  कहा ---- " हे  महातपस्वी  !  आपने  हमें  आशीर्वाद  देना   तो  दूर  ,  अपनी  आँखें  ही  बंद  कर  लीं  l   हमसे  ऐसी  क्या  भूल  हो  गई  l   इसे  स्पष्ट  करने  की  कृपा  करें  l "
 गोविन्द  ने  कहा  --- " महाराज  ! यदि  आप  सत्य  सुनना  चाहते  हैं   तो  मैं  सत्य  वचन  कहता  हूँ  ,  पर  ध्यान  रखें ,  सत्य  को  सह  पाना  अत्यंत  कठिन  है  l "
महाराज  भोज  ने  कहा --- " आप  सत्य  ही  कहें  l   राजदरबार  में  हमें  प्रसन्न  करने  के  लिए   गाये   गए   अतिशयोक्तिपूर्ण   गान  से  हमें  वितृष्णा  सी  हो  गई  है   l   आप  सत्य  कहें  ,  हमें  स्वीकार  है  l "
 गोविन्द  ने  कहा --- " राजन  !  लोकोक्ति  है  कि   प्रात:  किसी  कृपण  का  मुख  देखकर   नेत्र  बंद  कर   लेना  चाहिए  l   इसी   कारण  मैंने   अपनी  आँखें  मूँद   ली  हैं  l  '
   अपनी  गलती  सुनना   भी  अत्यंत  साहस  का  काम  है  l  राजा  के  माथे  पर  पसीने  की  बूंदे   दीखने   लगी  l   किसी  तरह  राजा  भोज  ने  अपने  को  संयत  किया  और  कहा  --- ' हे  तपस्वी  !  हमने  कइयों  को  दान  किया  l   क्या  हम  कृपण  हैं  ? "
 गोविन्द  ने  कहा --- " महाराज  !  आपने  जो  दान  दिया ,  वह  अपने   अहंकार  की  तुष्टि  के  लिए  दिया  है   l   जबकि  दान  किसी   सत्पात्र  को  उदारता  के  साथ   प्रदान  किया  जाता  है  l  आपने  दान  उसे  दिया  है  जिसे  उसकी  आवश्यकता  ही  नहीं  थी   l   केवल  चाटुकारों  को  आपने  दान  दिया  है  l   आप  राजा  हैं  ,  राजा  प्रजा  का  भगवान  होता  है   l   जो  राजा  अपने  इस  धर्म  का  पालन  नहीं  करता  उसकी  दुर्गति  सुनिश्चित  है   l   जो  राजकोष  का  उपयोग  केवल   अपने  सुख - भोग , वासना - तृष्णा  की  पूर्ति  के  लिए  करता  है  ,  एक  दिन  उसका  पतन  सुनिश्चित  है  ,  फिर  चाहे   वह   कितना   ही   धनबल ,  जनबल  एवं   बाहुबल    से  संपन्न  क्यों  न  हो    l   अत:  ऐसे  राजा  का  मुख  नहीं  देखना  चाहिए   और  इसलिए  हमने  अपनी  आँखें  मूँद   ली  हैं  l  "
  राजा  भोज   का  हृदय  सत्य  के  बाणों   से  बिंधता  जा  रहा  था   l   गोविन्द  आगे  बोले  ----  " महाराज  !  प्रगल्भ  की  विद्दा ,   कृपण  का  धन    और  कायर  का  बाहुबल   ----  ये  तीनों  पृथ्वी  पर  व्यर्थ  हैं  l   पृथ्वी  पर  सद्गुण  देह  छूटने  के  बाद  भी   अमर  रहता  है  l   धन  तो  चंचल  है  ,  इसका  विनिमय  तो  होना  ही  है  ,  परन्तु  उसका  सदुपयोग  सर्वोच्च  है  l   उदारता  हृदय  का  गुण   है  l   यदि  उदारता  है   तो  दधीचि ,  शिवि  और  कर्ण   के  समान  दानवीर   हुआ  जा  सकता  है  ,  जिनकी  अमर गाथा  अभी  भी  इस  धरा  पर  गायी   जाती  हैं   l  "
  गोविन्द  की  दी  गई  शिक्षा  ने  राजा  भोज  का  हृदय  परिवर्तित  कर  दिया  ,  इसके  उपरांत  उन्होंने  अपने  धन  का   अधिकतम    उपयोग   प्रजा  के  कल्याण  के  लिए  किया  l   उस  दिन  का  सूर्योदय  उनके  जीवन  में  भाग्योदय    के  रूप  में  परिवर्तित  हो  गया    l 

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