भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाएं हैं , जो हमें कुछ सन्देश देती हैं , कुछ सिखाती हैं l ऐसी ही एक लीला है ---- वृंदावन में इंद्रोत्सव की तैयारियाँ चल रहीं थीं l गर्गाचार्य ने नन्द बाबा से कहा कि इस बार श्रीकृष्ण को यजमान बनाया जाये l इस हेतु वे श्रीकृष्ण के पास गए l तब कृष्ण जी ने उनसे कहा ---- ' आपका आदेश है तो मैं मना नहीं करूँगा लेकिन इंद्रोत्सव मुझे पसंद नहीं l ' गर्गाचार्य को बहुत आश्चर्य हुआ , उन्होंने कहा ---' प्राचीन काल से यह उत्सव मनाया जा रहा है l तुम्हे इससे क्या विरोध है ? ' श्रीकृष्ण ने कहा ----- " यज्ञ में हम ढेरों सामग्री इसलिए समर्पित कर देते हैं क्योंकि हम इंद्र से भय खाते हैं l उसकी आराधना नहीं करेंगे तो वह कुपित हो जायेगा l मेरा अन्तस् कहता है कि भय से जो मनाया जाये , वह उत्सव नहीं हो सकता , वह आतंक है l भय से भीरुता आती है l "
गर्गाचार्य ने कहा कि तुम क्या चाहते हो ? तब श्रीकृष्ण ने कहा ----- " मैं ऐसा उत्सव पसंद करता हूँ , जो प्रेम और उल्लास को जगाए l अपने गोप - गोपियों के सम्मान में उत्सव मनाया जाये तो उत्तम होगा l दूध , मक्खन और घी देने वाली गायों के लिए उत्सव मनाएं l शीतल छाया देने वाले वृक्षों के लिए उत्सव मनाएं , जिनसे फल - फूल और ईंधन मिलता है , उनसे हमें वन में ही नहीं , घर में भी आश्रय मिलता है l हमें इंद्र के कोप से भयभीत नहीं होना चाहिए l " उनके इस विचार का समर्थन वहां आये मुनि सांदीपनि ने भी किया l उनकी प्रेरणा थी कि गोपोत्सव मनाकर गोवर्धन पूजा की जाये , यज्ञ का आयोजन हो , उसमे आहुतियां भी दी जाएँ लेकिन वे निमित मात्र हों l इंद्र उत्सव के लिए जो मनो दूध , घी और अन्न आदि संचित कर रखा गया था , वह व्रज के बालकों के लिए रखें l गोवर्धन पूजा की नई परंपरा शुरू हुई l
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