पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " कहावत है कि अपनी अक्ल और दूसरों की संपत्ति चतुर को चौगुनी और मूर्ख को सौ गुनी दिखाई पड़ती है l संसार में व्याप्त इस भ्रम को महामाया का मोहक जाल ही कहना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष एवं पूर्ण बुद्धिमान मानता है l न तो उसे अपनी त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं और न अपनी समझ में कोई दोष दिखाई देता है l इस एक ही दुर्बलता ने मानव जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुंचाई है , जितनी संसार की समस्त अड़चनों ने मिलकर भी नहीं पहुंचाई होगी l "
आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---- " अध्यात्म - विद्द्या का प्रथम सूत्र यह है कि प्रत्येक भली - बुरी परिस्थिति का उत्तरदायी हम अपने आप को मानें l बाह्य समस्याओं का बीज अपने में ढूंढें और जिस प्रकार का सुधार बाहरी घटनाओं , व्यक्तियों और परिस्थितियों में चाहते हैं , उसी के अनुरूप अपने गुण , कर्म , स्वाभाव में हेर - फेर प्रारम्भ कर दें l "
वैचारिक प्रदूषण से भरे इस समाज में कम - से - कम अपने चिंतन को ऊर्जावान बनाये रखें l अपना सुधार ही संसार की सर्वश्रेष्ठ सेवा है l
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