अनावृष्टि से संकटग्रस्त जनता की सहायता के लिए छत्रपति शिवाजी एक बाँध बनवा रहे थे l मजदूरी करके सहस्त्रों व्यक्तियों के भरण - पोषण की व्यवस्था हो रही थी l छत्रपति शिवाजी ने एक दिन यह देखा तो गर्व से फूले न समाये कि वे ही इतने लोगों को आजीविका दे रहे हैं l यदि वे ये प्रयास न करते तो उतने लोगों को भूखे मरना पड़ता l समर्थ गुरु रामदास उधर से निकले l शिवाजी ने उनका सम्मान - सत्कार किया और अपने उदार - अनुदान की गाथा कह सुनाई l समर्थ गुरु उस दिन तो चुप हो गए , पर जब दूसरे दिन चलने लगे तो शांत भाव से एक पत्थर की ओर संकेत कर के शिवाजी से कहा --- ' इस पत्थर को तुड़वा दो l ' पत्थर तोडा गया तो उसके बीच एक गड्ढा निकला , उसमें पानी भरा था l एक मेढ़की कल्लोल कर रही थी l समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी से पूछा --- " इस मेढ़की के लिए संभवत: तुमने ही पत्थर के भीतर यह जीवन रक्षा की व्यवस्था की होगी ? " शिवाजी का अहंकार चूर - चूर हो गया , वे समर्थ के चरणों में गिर पड़े l समर्थ गुरु रामदास ने उन्हें अपनी भूमिका का बोध कराया और आततायियों से संघर्ष हेतु नीति बनाने के लिए बाध्य किया l समर्थ गुरु का मार्गदर्शन एवं कृपा ही थी जिसने शिवाजी को समय - समय पर सही सूत्र देकर आपत्ति से बचाया व श्रेयपथ पर अग्रसर किया l
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