महाभारत का यह प्रसंग हमें शिक्षा देता है कि कोई परिवार हो , संस्था हो अथवा राष्ट्र हो , उनका आपसी वैमनस्य परिवार के भीतर ही रहना चाहिए l किसी अन्य के साथ संघर्ष होने पर सबका साथ - साथ रहना ही श्रेयस्कर है l यह प्रसंग है ------जब पांडवों का वनवास काल चल रहा था और वे द्वैत वन में निवास कर रहे थे , तब इस बात की सुचना दुर्योधन को मिली l यह समाचार मिलने पर दुर्योधन ने अपने दल - बल के साथ वहां जाने का निर्णय किया l उसका उद्देश्य मात्र पांडवों को नीचा दिखाना और अपने राजसी वैभव का दिखावा करना था l दुर्योधन के वहां पहुँचने से पहले ही उसका सामना गंधर्व राज चित्ररथ के समूह से हो गया l चित्ररथ अत्यंत पराक्रमी था l दुर्योधन तो स्वभाववश वैमनस्य रखने वाला था ही , उसने अकारण ही अपनी सेना को चित्ररथ पर हमला करने को बोल दिया l दुर्योधन को अंदेशा था कि वह आसानी से चित्ररथ को हरा लेगा , पर होनी को कुछ और ही मंजूर था l चित्ररथ की सेना ने दुर्योधन को न केवल हरा दिया , वरन उसको अपने कब्जे में ले लिया l दुर्योधन के मंत्री व बचे हुए सैनिक पांडवों के पास सहायता माँगने को पहुंचे l युधिष्ठिर ने उनको अभयदान दिया व युद्ध कर के दुर्योधन को चित्ररथ के पास से सकुशल छुड़वा दिया l भीम दुर्योधन की सहायता करने के पक्ष में नहीं थे l उन्होंने भ्राता युधिष्ठिर से प्रश्न किया ---- " दुर्योधन तो अकारण ही हमसे वैर रखता है , फिर हमें उसकी सहायता करने से क्या लाभ ? उसको उसके कर्मों का फल मिलने दिया होता l " भीम का वचन सुनकर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया --- " हम पाँचों भाइयों का भले ही अपने सौ भाइयों से विवाद हो जाये l किसी अन्य के साथ संघर्ष होने पर हम सबका साथ - साथ रहना ही श्रेयस्कर है l "
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