मनुष्य अपनी कमजोरियों और कामना - वासना के चक्रव्यूह में इस तरह फँसा है कि वह वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहता , सच्चाई से दूर भागता है l एक सच को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपने प्रवचन में एक किस्सा सुनाया था ---- " एक समय की बात है l एक वकील और उनका एक मुवक्किल था l मुवक्किल किसी केस में फँस गया l उसने कहा --- ' वकील साहब ! आप मुझे छुड़ा दें तो मैं जन्म भर आपका एहसान मानूँगा l वकील ने कहा --- ' जन्म भर एहसान मत मान , बस , तू मुझे पांच हजार रूपये दे दे , मैं तेरा केस लड़ दूंगा l तू पागल बन जाना l मैं डॉक्टरों से मिलकर तेरे पागलपन का सार्टिफिकेट बनवा दूंगा l जब तू अदालत में जाए , तो बस एक ही शब्द याद कर के जाना l जब जज तुझसे कोई सवाल पूछे तो तू कह देना -- ' में. ' l हमारे कानून में पागलों के लिए कोई कानून नहीं है l अदालत में न्यायधीश ने पूछा ---' क्या नाम है तेरा ? ' उसने कहा --- ' में ' l क्या तूने गलत काम किया है ? ' में ' न्यायधीश कोई भी बात पूछते तो वह कहता -- ' में ' l वकील ने कहा --- साहब यह तो पागल है l यह बात उसने गवाहों और सबूतों के माध्यम से सिद्ध कर दी l जज साहब ने कहा --- इसे बरी कर दिया जाये l छूटने के बाद वह व्यक्ति वकील साहब के घर गया l वकील साहब ने कहा --- लाइए हमारे फीस के पांच हजार रूपये l उस व्यक्ति ने कहा --- ' में ' l वकील साहब अपना माथा ठोकते रह गए l
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