महर्षि रमण के आश्रम के समीपवर्ती गाँव में एक अध्यापक रहते थे l एक बार अपने पारिवारिक जीवन से अत्यधिक क्षुब्ध होकर आत्महत्या करने की बात सोचने लगे l किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले उन्होंने महर्षि की सम्मति जाननी चाही और उनके आश्रम में पहुँच गए l महर्षि रमण आश्रमवासियों के भोजन के लिए पत्तलें बना रहे थे l दिव्यद्रष्टा ऋषि ने अध्यापक महोदय के आने का अभिप्राय समझ लिया था l प्रणाम करने के उपरांत अध्यापक बोले -- ' भगवन ! आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम के साथ बना रहे हैं और आश्रमवासी इनमें खाना खाकर फेंक देंगे l ' महर्षि मुसकराते हुए बोले ---- ' सो तो ठीक है , वस्तु का पूर्ण उपयोग हो जाने पर उसे फेंक देना बुरा नहीं है , बुरा तो तब है जब उसे अच्छी अवस्था में ही ख़राब कर के फेंक दिया जाये l ' अध्यापक महोदय को महर्षि का मर्मस्पर्शी अभिप्राय समझ में आ गया और उन्होंने आत्महत्या करने का इरादा छोड़ दिया l
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