जब दुर्योधन ने पांडवों को सुई की नोक बराबर भूमि भी देने से इनकार कर दिया तब महाभारत का होना निश्चित हो गया l कर्ण के लिए विपरीत समय में काम आने वाले दुर्योधन का मित्रधर्म सर्वोपरि था l वो किसी भी कीमत पर अर्जुन को परास्त कर के अपने मित्रधर्म से उऋण होना चाहता था परन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा था l अर्जुन के सामने पराजय का सामना करना पड़ता था l इसलिए इस समस्या पर भीष्म पितामह के मनोभाव जानने के लिए वह उनके पास गया l कर्ण ने कहा ----- " हे पितामह ! युद्ध में तो केवल उसी की जीत होती है जिसके योद्धा युद्ध कौशल में निपुण एवं अति साहसी हों l जिसके पक्ष में आप जैसा सेनापति हो , आचार्य द्रोण के समान शस्त्रवेत्ता हो , कृपाचार्य के समान कूटनीतिज्ञ हो , अश्वत्थामा , दुर्योधन, दु:शासन तथा मुझ जैसा धर्नुधर हो , कैसे भला कोई हमें परास्त कर सकता है l हमारे पास तो तमाम राज्यों की सेनाएं हैं , कृष्ण की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं भी हमारे साथ हैं l हमें किस बात की चिंता , हम तो अजेय और अपराजेय हैं l पांडवों के पास क्या है , कृष्ण हैं , वे भी निहत्थे , अस्त्र -शस्त्र न उठाने की उन्होंने प्रतिज्ञा की है l ऐसे में क्या हमारी जीत सुनिश्चित नहीं है ? " पितामह कुछ देर मौन रहे फिर बोले --- " वत्स कर्ण ! तुम श्री कृष्ण को निहत्था समझने की महान भूल कर रहे हो l उन्हें समझ पाना मानवीय बुद्धि की सीमा से परे है l तुम्हारी बुद्धि उस दिव्य एवं अदृश्य तत्व को परख नहीं पा रही है जो उनको एक सुरक्षा कवच से आच्छादित किए हुए है और उनका कवच है उनके कृष्ण , उनका धर्म ! धर्म की ही जीत होगी l जहाँ धर्म है , वहीँ श्रीकृष्ण हैं इसलिए अर्जुन जीतेगा l कौरव अधर्म के साथ खड़े हैं , अधर्म को पराजय का सामना करना पड़ेगा l "
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