पुराण में एक प्रसंग है ---- प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे l किन्तु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था l उन्होंने क्रोध को एक व्यसन बना लिया था और जब - तब उससे हानि उठाते रहते थे l ज्ञानी और साधक होते हुए भी वे अपनी इस दुर्बलता को दूर नहीं कर पा रहे थे l एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे l उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपाद नाम का एक व्यक्ति आ गया l दोनों एक - दूसरे के सामने आ गए l पथ बहुत सँकरा था l एक के राह छोड़े बिना , दूसरा जा नहीं सकता था , लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं हुआ और हठपूर्वक आमने - सामने खड़े रहे l थोड़ी देर खड़े रहने पर दोनों ने हटना , न हटना प्रतिष्ठा - अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया l अजीब स्थिति पैदा हो गई l ऋषि कहते हैं --- यहाँ पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से श्रेष्ठ और सभ्य समझता है वह हटकर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता l निश्चित था कि प्रचेता , कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे l कल्याणपाद उनकी तुलना में कम था l इसलिए प्रचेता को उसे रास्ता दे देना चाहिए , किन्तु क्रोधी स्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया , बल्कि उसी की तरह अड़ गए l कुछ देर दोनों खड़े रहे , परस्पर विवाद हुआ , फिर प्रचेता को क्रोध हो आया l उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि राक्षस हो जाये l उनके तप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया l क्रोध व अहंकार के कारण प्रचेता के तप का प्रभाव कम हो गया था इस कारण वे अपनी रक्षा न कर सके l
No comments:
Post a Comment