श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपनी प्रधान विभूतियों का विवरण देते हैं ---- स्त्रियों में भगवान की सर्वाधिक विभूतियाँ हैं l ऋषि कहते हैं --जब तक ये विकसित नहीं हो पातीं , तब तक दुनिया असंतुलित रहेगी l इनके विकसित होने पर ही दुनिया में संतुलन और सौंदर्य प्रकट होगा l विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं ------ ( युग गीता से ) ---- स्त्रियों में मैं कीर्ति हूँ l कीर्ति का मतलब ऐसी स्त्री , जो स्वयं को वासना का विषय मानकर नहीं जीती l ऐसी नारी जिसके व्यक्तित्व से वासना की झंकार नहीं निकलती l ऐसा होने पर उसे एक अनूठा सौंदर्य उपलब्ध होता है और वही सौंदर्य उसका यश है , उसकी कीर्ति है l यह आंतरिक सौंदर्य है , जिसे देखकर वासना उभरने के बजाय शांत हो जाती है l यह कहने के बाद भगवान कहते हैं ---- स्त्रियों की श्री मैं ही हूँ l कीर्ति बड़ी गहरी साधना है , यह साधना जब परिपक्व होती है , तो श्री विकसित होती है l श्री का सौंदर्य अपार्थिव है , अलौकिक है l यह स्त्री का आत्मिक सौंदर्य है , उसकी दिव्यता की अभिव्यक्ति है l कभी किसी मीरा में , मरियम में इसके दर्शन हो पाते हैं l इसके बाद स्त्री के एक अन्य गुण वाक् को अपना स्वरुप बताते हैं l इसके बाद एक अन्य गुण को अपना स्वरुप बताते हैं , वह है स्मृति --- यह स्त्री के अस्तित्व की सम्पूर्णता है l स्त्री जब किसी को याद करती है तो केवल बुद्धि से नहीं , विचार से नहीं , बल्कि अपने पूरे होने से , सम्पूर्णता से l इस तरह से कोई परमात्मा का स्मरण करे तो उसे वे मिल जाते हैं l स्त्री में भगवान की अन्य विभूति है ---- मेधा ---इसी के बल पर स्त्री संवेदना व सृजन को धारण करती है l इसके बाद है --- धृति --- इसका अर्थ है ---धीरज , धैर्य , स्थिरता l स्त्री का धैर्य , उसमें सहने की क्षमता अनंत है l इसी कारण प्रकृति ने उसे माँ का गौरव दिया l इसके पश्चात स्त्री का अगला गुण है ---- क्षमा --- जिसे भगवान अपनी विभूति कहते हैं l स्त्री में जितना प्रेम है , उतनी ही क्षमा है , इसी कारण वह माँ है l
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