18 May 2021

WISDOM ------

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- " केवल  स्वार्थ   और मिथ्याभिमान  से  प्रेरित   होकर  किया  गया  काम   कितना  ही  बड़ा  क्यों  न  हो  ,   न  तो  वह  उस  व्यक्ति   को  ही  सुखी  और  संतुष्ट  कर  सकता  है   और  न  मानव  समाज  को  ही  कुछ  दे  सकता  है   l   "     घटना  उस  समय  की  है    जब  सिकंदर  फारस  देश  पर  आक्रमण  करने  जा  रहा  था  ,  सहसा  वह   एक  स्थान  पर  रुक  कर  घोड़े  से  उतर  गया  और  सरदारों  से  कहा  --- सेना  का  पड़ाव  यही  डाल   दो  ,  मेरी  तबियत  कुछ  ख़राब  हो  रही  है  l   जब  तक  ठहरने  की  व्यवस्था  हुई  सिकन्दर   पेट  और  हृदयस्थल  में  प्रचंड  पीड़ा  से  तड़पने  लगा   l  सिकन्दर   के  साथ  यूनान  से  कई  योग्य   हकीम   आये  थे  , शरीर  और  नाड़ी  की  परीक्षा  की , अच्छी से  अच्छी  दवा  दी  ,  सभी  हताश  हो  गए  l   विश्व विजय  का  स्वप्न  देखने  वाला   शक्तिमन्त    सिकन्दर  मर  रहा  है , विवश  और  असहाय  है     और  सब  अपने - अपने  हित   की  बात  सोच  रहे  थे  l   आचार्य श्री  लिखते  हैं -----  ' यदि  सिकन्दर   ने  अपनी  शक्ति  जनहित  और  संसार  में   सुख - शांति  की  वृद्धि  में  लगाई   होती   तो  उसकी  सहायता  की  जोखिम  से  लोग  डरते  नहीं   बल्कि  अपने  प्राण  देकर  भी  उसे  बचाने   का  प्रयत्न  करते  l    राज - पद  और  उस  पर  भी  अनीति  तथा   आतंक   से  दूषित  राज - पद   ऐसा  ही  प्रतारणा   पूर्ण  होता  है   कि   लोग  न  तो  उस  पर  विश्वास  करते  हैं   और  न  ही  यह  विश्वास  रखते  हैं  कि   वह  उन  पर   विश्वास  कर  रहा  होगा   l -------------------                                                                                           जब    सिकन्दर   के  जीवन  की    अंतिम  घड़ी  आ  गई   तो  उसने  अपने  एक  सेनापति  को  बुलाया   और  कहा --- " देखो  मित्र  !   जब  मेरी  अर्थी  बनाई  जाए   तो  मेरे  दोनों  हाथ   अर्थी  से  बाहर  निकाल   देना   ताकि  दुनिया  वाले  यह  जान  सकें   कि   मैं  कुछ  नहीं  ले  जा  रहा  हूँ   और  उसके  दोनों  हाथ  खाली  थे  l  "   '  लाया  था  क्या  सिकन्दर ,  दुनिया  से  ले  चला  क्या  ?  ये  हाथ  दोनों  खाली  , बाहर  कफ़न  से  निकले   l  '

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