पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' बाहर की दुनिया में शांति नहीं है , वस्तुओं में , सुख - सुविधाओं में , संतान में कहीं भी व्यक्ति को शांति नहीं है l रावण के पास सोने की लंका थी , महान विद्वान् था , उसके एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे लेकिन फिर भी उसे सुख - शांति नहीं थी l ------ एक बहुत धनवान व्यक्ति था , लेकिन वृद्धावस्था में उसे बीमारियों ने घेर लिया l उसने सुना था कि वीतराग शुकदेव जी के मुंह से राजा परीक्षित ने भागवत पुराण की कथा सुनकर मुक्ति प्राप्त की थी l उसके मन में भी भागवत के प्रति श्रद्धा जाग उठी और अपनी मुक्ति के लिए किसी ब्राह्मण से कथा सुनने की व्यवस्था करने की बात सोची l एक बड़े प्रख्यात पंडित जी मिले l धनवान यजमान मिले तो पंडित जी ने एक चाल चली और बोले ----- " घोर कलियुग है l पांच बार कथा सुननी होगी तभी कल्याण होगा l " एडवांस दान - दक्षिणा लेकर पांच भागवत सप्ताह तय हुए l धनी व्यक्ति ने सभी में भागीदारी की l पहली में मन लगा लेकिन बाकी किसी तरह से कटीं l कुछ भी नहीं हुआ l सेठ का मन बहुत अशांत था l एक संत से मुलाकात हुई तो उसने अपनी जिज्ञासा रखी कि पांच परायण हुए फिर भी कल्याण क्यों नहीं हुआ ? मन को शांति क्यों नहीं मिली ? ' संत बोले ---- परीक्षित पूर्णत: विरक्त भाव से , श्रद्धा से कथा सुन रहे थे l उनके मन में किसी प्रकार की इच्छा का भाव नहीं था क और निर्लिप्त भाव से शुकदेव जी कथा सुना रहे थे l तुम्हारी कथा में दोनों ही नहीं थे l इसलिए कथा का लाभ नहीं मिलता l
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