पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है ----- ' धर्म के अभाव में कोई भी मनुष्य सच्चा मनुष्य नहीं बन सकता और बिना सेवाभाव के धर्म का कोई महत्व नहीं है l ' पं. मदनमोहन मालवीय सनातन धर्म के साकार रूप थे l धार्मिक नियमों की रक्षा और उनके पालन को वे जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य मानते थे l उनकी धर्म - भावना में घृणा नहीं , प्रेम की प्रधानता थी l वे अपने धर्म के कट्टर अनुयायी थे लेकिन जो धार्मिक नियम रूढ़ि बनकर देश , जाति अथवा समाज को हानि पहुँचाने लगते , उनका त्याग कर देने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं होता था l नित्य - प्रति पूजा - पाठ करना मालवीय जी की दिनचर्या का एक विशेष अंग था , किन्तु मानवता की सेवा करना वे व्यक्तिगत पूजा - उपासना से भी अधिक बड़ा धर्म समझते थे l इसका प्रमाण उन्होंने उस समय दिया जब एक बार प्रयाग में प्लेग फैला l असंख्य नर - नारी कीड़े -मकोड़ों की तरह मरने लगे l मित्र -पड़ोसी , सगे - संबंधी सब एक -दूसरे को असहाय दशा में छोड़कर भागने लगे l किन्तु मानवता के सच्चे पुजारी महामना ही थे जिन्होंने उस आपत्तिकाल काल में अपने सारे धार्मिक कर्मकांड छोड़कर तड़पती हुई मानवता की सेवा में अपने जीवन को दांव पर लगा दिया l वे घर, , गली पैदल दवाओं और स्वयं सेवकों को लिए दिन रात रोगियों को खोजकर उनके घर जाते , उनकी सेवा करते , उन्हें दवा देते , उनके मल - मूत्र साफ करते , उनके निवास स्थान तथा कपड़ों को धोते थे l इस सेवा कार्य में वे स्वयं का नहाना - धोना , पूजा - पाठ। खाना -पीना सब भूल जाते थे l यह थी महामना की सेवा भावना जिसके लिए वे अपना तन , मन , धन सब न्योछावर करते रहते थे l उनके धर्म का ध्येय मानवता की सेवा था , जिसे वह जीवन भर सच्चाई के साथ निभाते रहे l
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