पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- ' विश्व के शक्ति भंडार में आत्मबल सर्वोपरि है l अध्यात्मबल से आत्मबल उभरता है l अध्यात्मबल का संपादन कठिन नहीं , वरन सरल है l उसके लिए आत्मशोधन एवं लोकमंगल के कार्यों को जीवनचर्या का अंग बना लेने भर से काम चलता है l व्यक्तित्व में पैनापन और प्रखरता का समावेश इन्ही दो आधारों पर होता है और इतना होने पर दैवी अनुग्रह अनायास बरसता है और आत्मबल भीतर से उभरता है l ' आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' केवट , शबरी , अंगद , नल - नील , रीछ - वानर , सुग्रीव की निज की भौतिक सामर्थ्य बहुत कम थी , पर वे ईश्वरीय शक्ति से जुड़ गए और अपने में देवत्व की मात्रा बढ़ा लेने पर ही इतने मनस्वी बन सके l " चन्द्रगुप्त जब विश्व विजय की योजना सुनकर सकपकाने लगे तो चाणक्य ने कहा ---- " तुम्हारी दासी -पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ l उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद पुत्र जैसी भूमिका निभाओ l " छत्रपति शिवजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी , तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था ---- " तुम छत्रपति हो गए , पराजय की बात ही मत सोचो l " बड़े - बी अड़े कार्य देवत्व की शक्ति के बिना असंभव हैं l
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