पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- आधिपत्य की इस दौड़ में सभी के जीवन की दशा बिगड़ गई क्योंकि हम त्याग का मूलमंत्र ही भूल गए हैं l यदि हम त्याग की डगर में थोड़ा सा आगे बढ़ेंगे तो हमारे जीवन में अमृत घुलने लगेगा , हमारे जीवन से विषैलापन समाप्त होता जायेगा l ' आचार्य श्री आगे लिखते हैं -- भगवान श्रीराम अपना अधिकार त्यागने के लिए तत्पर हैं और भरत अपने सुख को त्यागने के लिए तत्पर हैं तो कोई झगड़ा नहीं है l लेकिन जब दुर्योधन कहता है की पांच गांव तो बहुत दूर की बात है , मैं सुई की नोंक बराबर भी भूमि नहीं दूंगा तब झगड़ा खड़ा होता है , महाभारत हो जाता है l आज बात देश की हो या विश्व की हो भीषण रूप से छिना - झपटी मची हुई है , आधिपत्य की होड़ है l जब कोई त्याग में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके अंत:करण में प्रसन्नता और शांति हिलोरें लेती है और तब बाहर कुछ पाने की इच्छा नहीं होती लेकिन जो अंदर से रिक्त है , कंगाल हैं , वही बाहर के लिए भागते - दौड़ते हैं l ------- तैमूर लंग लंगड़ा था , कहते हैं एक बार उसने एक राज्य पर आक्रमण किया , वहां का सुल्तान भी अपंग था , काना था l हमले के बाद सुलह हुई , समझौता हुआ उसके बाद दोनों मिल बैठकर बातें कर रहे थे l इस अवसर पर बहुत से लोग आमंत्रित थे , उनमें एक फकीर भी था l उस समय तैमूर लंग हँसता हुआ सुल्तान से बोला ---- मैं लंगड़ा और तुम काने , ये खुदा को भी क्या हो गया है ? लंगड़े - कानों को सुल्तान बनाता रहता है l तैमूर परिहास की मनोदशा में था , हँसी कर रहा था l लेकिन उस समय सभा में उपस्थित उस फकीर ने कहा ----- " हुजूर ! लंगड़े - कानों को ही सल्तनत की जरुरत होती है l वे आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं l वे अपने अंदर कुछ कमी महसूस करते हैं , जिसको वे बाहर पूरा करना चाहते हैं l जो अपने आप में जितना संतुष्ट है , संतृप्त होता है , वो बाहर की उपलब्धियों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता हैं l त्याग ही सर्वोच्च संतुष्ट का प्रमाण है l
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