महाभारत में एक प्रसंग है ---- अर्जुन ने जब खांडव वन को जलाया , तब अश्वसेन नामक सर्प की माता बेटे को निगलकर आकाश में उड़ गई , लेकिन अर्जुन ने उसका मस्तक बाणों से काट डाला l सर्पिणी तो मर गई , पर अश्वसेन बचकर भाग गया l उसी वैर का बदला लेने वह कुरुक्षेत्र की रणभूमि में आया था l उसने कर्ण से कहा ----- " मैं विश्रुत भुजंगों का स्वामी हूँ l जन्म से ही पार्थ का शत्रु हूँ l तेरा हित चाहता हूँ l बस एक बार अपने धनुष पर मुझे चढ़ाकर मेरे महाशत्रु तक मुझे पहुंचा दे l तू मुझे सहारा दे , मैं तेरे शत्रु को मारूंगा l " कर्ण हँसे और बोले ---- " जय का समस्त साधन नर की बांहों में रहता है , उस पर भी मैं तेरे साथ मिलकर --- साँप के साथ मिलकर मनुज से युद्ध करूँ , निष्ठां के विरुद्ध आचरण करूँ ! मैं मानवता को क्या मुँह दिखाऊंगा ? " इसी प्रसंग पर रामधारी सिंह ' दिनकर ' ने लिखा है ----- " रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज , छिपे नरों में भी , सीमित वन में ही नहीं , बहुत बसते पुर - ग्राम - घरों में भी l " आचार्य श्री लिखते हैं ---- सच ही है , आज सर्प रूप में कितने अश्वसेन मनुष्यों के बीच बैठे हैं ---- राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लीन हैं , आतंकवाद के समर्थक l महाभारत की ही पुनरावृति है आज l
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