हमारे पुराणों में देवासुर संग्राम की अनेक कथाएं हैं l वे कथाएं केवल मनोरंजन की कहानी नहीं हैं , वे कथाएं हमें बहुत कुछ सिखाती हैं ---- आसुरी प्रवृति का व्यक्ति किसी का भी सगा नहीं होता , उसमे अहंकार और स्वार्थ कूट - कूटकर भरा होता है और उसके अत्याचारों की शुरुआत परिवार से ही होती है l कोई बाहरी व्यक्ति या सुरक्षा कर्मी परिवार की समस्याओं में दखल नहीं देता इसलिए ऐसे असुर बड़ी आसानी से अपने ही परिवार के बच्चों और महिलाओं को उत्पीड़ित करते हैं , अपने अहंकार की पूर्ति के लिए बाहरी लोगों की भी सहायता लेते हैं l उनकी यही प्रवृति मजबूत होकर समाज में दंगे - फसाद , अपराध को अंजाम देती है l पुराण में कथा है ---- हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद पर ही सबसे ज्यादा अत्याचार किए , उसे मारने के लिए अपनी शक्ति , छल - छद्द्म , तंत्र - मन्त्र सबका सहारा लिया l इस घृणित कार्य में उसने अनेकों की मदद ली l यहाँ ये बात महत्वपूर्ण है कि ईश्वर ने नृसिंह अवतार लेकर उन अनेकों को नहीं मारा , ईश्वर ने उसी को दंड दिया जो इन सब कृत्यों की जड़ था , उस हिरण्यकश्यप का ही पेट फाड़कर उसे मृत्युदंड दिया l इसी तरह सीताजी ने अशोक वाटिका में उनको विभिन्न तरीकों से सताने वाली राक्षसियों को क्षमा कर दिया और कहा कि वे तो रावण के इशारों पर यह सब अपना पेट पालने के लिए कर रहीं थीं l ये कथाएं यही शिक्षा देती हैं कि चाहें परिवार हो , समाज , राष्ट्र या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बात हो , अत्याचार , उत्पीड़न , अन्याय का जो मूल है , जड़ है , उस हिरण्यकश्यप , उस रावण का अंत करो , शांति अपने आप आ जाएगी
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