श्री रामचरितमानस में गोस्वामी जी कहते है ---- ' मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ , जो बिना ही प्रयोजन , अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं , जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है l गोस्वामी जी कहते हैं संत व्यक्ति कमल के समान होते हैं जिनका दर्शन और स्पर्श सुख देता है लेकिन असंत व्यक्ति जोंक की तरह होते हैं , जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है l ' आचार्य श्री लिखते हैं --- 'इस संसार में जो वेषधारी ठग हैं , उन्हें भी साधु - संत का वेश बनाए देखकर संसार पूजता है , लेकिन अंत तक उनका कपट नहीं चलता l उदाहरण के लिए कालनेमि ने ऋषि का वेश बनाया और हनुमानजी के साथ छल किया , रावण ने साधु का वेश बनाया और सीताजी के साथ छल किया और राहु ने देवता का रूप बनाया और देवताओं के साथ छल किया , लेकिन इन तीनों को इस छल का भयंकर दंड भुगतना पड़ा l ' कलियुग में लोगों में दुर्बुद्धि है कि वे लोगों के बाहरी रूप , वेश -भूषा को देखकर उसे सम्मान देते हैं , उसके पीछे जो उनकी असलियत है उसे समझ नहीं पाते l सत्कर्म करने से , सन्मार्ग पर चलने से विवेक जाग्रत होता है l विवेक दृष्टि जाग्रत होने पर ही हम वो समझ सकते हैं जो सामान्य आँखों से नहीं दिखाई देता l रामचरितमानस से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हम गुणों की , मन और विचारों की पवित्रता का सम्मान करें , जामवंत जी रीछ शरीर धारी होने पर भी सम्मान के पात्र हैं , श्री हनुमानजी वानर रूप में भी सारे संसार में पूजित हैं l
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