पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' जीवन का स्वरुप कोई भी हो , व्यक्तिगत अथवा सामूहिक , उसके साथ काल , कर्म और स्थान की निरंतरता अनिवार्य रूप से जुड़ी है l सभी को अपने कर्मों के अनुसार स्थान मिला है , साथ ही नए कर्मों की स्वतंत्रता भी , लेकिन इनके परिणाम तो काल ही तय करता है l कहते हैं ---- परमेश्वर ने स्वयं इस युग में महाकाल का रूप धारण किया है l वे व्यक्ति को और समूह को , राष्ट्र और विश्व को उसके कर्मों का उचित दंड देकर नए युग का आरम्भ करेंगे l युग का प्रत्यावर्तन करेंगे l श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान अपना परिचय देते हुए कहते हैं ---- ' मैं काल हूँ l ' उन्होंने मंदिरों में , विभिन्न देवस्थानों में पूजे जाने वाले किसी देवी -देवता के रूप में स्वयं का परिचय नहीं दिया l सीधा - सपाट कहा ---- ' मैं काल हूँ l ' महाभारत में परमेश्वर काल रूप में कुरुक्षेत्र में महायुद्ध का दंड लेकर प्रकट हुए हैं l अर्जुन से कहते हैं --- तुम इन प्रतिपक्षी योद्धाओं को मारो या न मारो , पर ये मरेंगे अवश्य l इन्हें मारने का माध्यम तुम बनो या फिर कोई और , इनका मरना सुनिश्चित है , क्योंकि व्यक्ति अथवा समूह को कोई परिस्थिति या घटनाक्रम नहीं मारता l उसे मारता है , उसका कर्म l भीष्म और द्रोणाचार्य अपने व्यक्तिगत जीवन में भले ही अच्छे हों , पर दुर्योधन के अनगिनत दुष्कर्मों के साथ उनकी मौन स्वीकृति ने उन्हें दंड का भागीदार बना दिया l यही स्थिति अन्य सभी की है l जीवन में शुभ और अशुभ के लिए प्रत्यक्ष में जिम्मेदार कोई भी हो , पर यथार्थ में उत्तरदायी होता है कर्म l इस कर्म के अनुसार ही काल नियत समय और नियत स्थान पर परिस्थितियों और घटनाक्रमों का सृजन कर देता है l कर्म जितना व्यापक और तीव्र होता है , उसी के अनुरूप काल भी अपना आकार बढ़ा लेता है l
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