जिसके लिए ' परमात्मा पर्याप्त है ' वे कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं रखते ' ------ घटना अकबर के शासनकाल की है , उस काल के महान कवि और माँ भगवती के परम उपासक श्रीपति के जीवन की है l अपने सद्गुणों और जगन्माता की कृपा के कारण वे मुग़ल बादशाह अकबर को अत्यंत प्रिय थे , उनके विचारों से अकबर का मन शांत और प्रसन्न होता था इसी कारण उन्होंने श्रीपति को दरबार में अपना सलाहकार बना रखा था l एक दिन जब दरबारियों से अकबर को ज्ञात हुआ कि श्रीपति महान कवि हैं तो उन्होंने उनसे कविता सुनाने का आग्रह किया l श्रीपति जी ने आध्यात्मिक भावों के कुछ पद सुना दिए l इससे अकबर को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने श्रीपति की बहुत प्रशंसा की l इससे अन्य दरबारियों को बहुत ईर्ष्या हुई और वे समय -समय पर भक्त श्रीपति की निंदा ,चुगली करने लगे l जिसे ईश्वर का विश्वास है वह हमेशा निडर व निश्चिन्त रहता है l एक दिन दरबारियों ने भक्त श्रीपति को नीचा दिखाने के लिए एक युक्ति की l बादशाह अकबर का दरबार था , उस समय बादशाह के सामने श्रीपति को छोड़कर अन्य सब दरबारी कवियों और अन्य दरबारियों ने एक प्रस्ताव रखा कि अगले दिन सब कवि अपनी एक कविता सुनाएँ और इनमें से हर एक की कविता की अंतिम पंक्ति में यह वाक्य अवश्य रहे -- ' करौ मिलि आस अकबर की " l बादशाह ने भी हामी भर दी कि इस बहाने भक्त श्रीपति की बुद्धिमत्ता और भक्ति की परीक्षा हो जाएगी l अगले दिन दरबार में भारी भीड़ हुई l सभी उत्साहपूर्वक अपनी कविता सुनाकर अकबर की प्रशंसा कर रहे थे l दरबार में सभी की द्रष्टि श्रीपति पर टिकी थी कि देखें वे क्या कहते हैं l इधर श्रीपति जी मन ही मन जगन्माता का ध्यान कर निडर और निश्चिन्त थे l अपनी बारी आने पर वे आसन से उठे और माता का स्मरण कर अपनी स्वरचित कविता पढ़ी ------ 'अबके सुल्तान फरियान समान हैं , बांधत पाग अटब्बर की , तजि एक को दूसरे को जो भजे , कटि जीभ गिरै वा लब्बर की l सरनागत ' श्रीपति ' माँ दुर्गा की , नहिं त्रास है काहुहि जब्बर की , जिनको माता सो कछु आस नहीं , सो करौ मिलि आस अकबर की l ' भक्त श्रीपति जी ने निडर होकर अपनी कविता में कह दिया कि कि जिसे जगन्माता से कोई आस नहीं है , वे ही अकबर से आस करें l बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भक्त श्रीपति को यह कहते हुए गले लगा लिया कि तुम्हारी भक्ति सच्ची है , जगन्माता तुम्हारे चित्त , चिन्तन और चेतना में विराजती हैं l
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