काल की महिमा ----- विद्वानों ने काल को दुरितक्रम कहा है l बड़े वेग से दौड़ने पर भी कोई काल को लाँघ नहीं सकता l हम सब काल के आधीन हैं ----इस सत्य को समझाने वाली पुराण की एक कथा है ---- भगवान वामन ने तीन पग में राजा बलि से पृथ्वी और स्वर्ग का राज्य छीनकर इंद्र को दे दिया l साम्राज्य पाकर इंद्र को अहंकार हो गया l उनके पास सब कुछ था , लेकिन मन से बलि के प्रति द्वेष न गया l कहीं न कहीं उनके मन में अपने सिंहासन को खोने का भय भी था l वे अपने वज्र के प्रहार से बलि का वध करना चाहते थे l उन्होंने ब्रह्मा जी से उनका ठिकाना जानना चाहा l ब्रह्मा जी ने कहा --- " तुम्हारा उदेश्य ठीक नहीं है l तुम उनका वध करने की कोशिश भी नहीं करना l राजा बलि भगवान नारायण के भक्त हैं और उन्हें उनका संरक्षण प्राप्त है l इस समय वे विभिन्न पशु रूप में वनों में भ्रमण कर रहे हैं l उनका अहित करने की चाह में तुम स्वयं का अहित कर लोगे l " लेकिन अहंकारी को किसी की सलाह समझ में नहीं आती l देवराज इंद्र ने अपने सम्पूर्ण वैभव को प्रदर्शित करने वाला वेश धारण किया और ऐरावत पर चढ़कर बलि की खोज में निकल पड़े l एक वन में एक गधे के लक्षणों को देखकर उन्होंने अनुमान लगा लिया कि यही राजा बलि है l इंद्र ने कहा --- " दानवराज ! आज ना तो तुम्हारे पास राज्य है , न ही ऐश्वर्य l क्या तुम्हे अपनी इस दुर्दशा पर दुःख नहीं होता l " इस पर बलि ने कहा --- " देवेन्द्र ! मुझे ज्ञात है कि तुम यहाँ पर मेरा उपहास करने आए हो क्योंकि तुम जीवन के रहस्य को नहीं जानते l जीवन में कुछ भी स्थिर नहीं है l तुम जिस ऐश्वर्य , वैभव तथा राजलक्ष्मी का प्रदर्शन करने आए हो , वह अभी कल तक मेरे पास थी l देवता , पितर , गन्धर्व , मनुष्य , नाग , राक्षस सब मेरे आधीन थे l पर काल के प्रभाव से आज न तो मेरे पास कोई प्रभुता है और न कोई प्रभुत्व l संभव है यह ऐश्वर्य , वैभव कल तुम्हे छोड़कर कहीं और चला जाये l काल के इस रहस्य को जानकर , मैं तनिक सा भी दुःखी नहीं होता l " बलि कहते हैं --- " हे इंद्र ! तुम इस सत्य के साक्षी हो कि रणभूमि में मेरे एक ही घूँसे के प्रहार से तुम्हारा यह ऐरावत और स्वयं तुम भाग खड़े हुए थे l लेकिन यह समय पराक्रम दिखाने का नहीं सहन करने का है l इस अवस्था में भी मैं बहुत निश्चिन्त हूँ और गधे के रूप में भी अध्यात्म में निरत हूँ l " राजा बलि के अपार धैर्य और सहनशीलता को देखकर इंद्र को अपनी कुटिलता पर पछतावा हुआ , वे बोले --- " दानवराज ! तुम्हारे वचनों ने मुझे जीवन का मर्म सिखाया , तुम्हारा जीवन जीवमात्र के लिए सीख है l
No comments:
Post a Comment