श्रीमद भगवद्गीता में कहा गया है कि कर्म करने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र है , वह जैसे चाहे वैसे कर्म कर सकता है , लेकिन उसके परिणाम से नहीं बच सकता l कर्मों का फल तो देर -सवेर भोगना ही पड़ता है l इस संसार में रहते हुए कर्मों का फल तो मिलता ही है , मृत्यु के बाद व्यक्ति की क्या गति होगी यह भी उसके कर्म ही तय करते हैं l अहंकारी सोचता है कि वह धन से सब कुछ खरीद सकता है लेकिन मृत्यु के बाद उसे कौन सा लोक मिलेगा या अतृप्त आत्मा युगों तक भटकती रहेगी ---- इस संबंध में उसका धन , पद -प्रतिष्ठा कुछ काम नहीं आते , यहाँ कर्म का और उससे जुड़ी पवित्र भावनाओं का सिक्का चलता है l एक कथा है ------ पिता की मृत्यु के बाद उसका पुत्र उनकी अस्थियों का कलश लेकर एक संत के पास गया और उनसे प्रार्थना की कि वह कोई ऐसा अनुष्ठान कर दें कि उसके पिता को उच्च लोक की प्राप्ति हो जाये l संत बोले --- " ऐसा करो कि तुम एक कलश में घी और पत्थर भरकर ले आओ और उसे पानी में डुबोकर फोड़ दो l " पुत्र ने सोचा कि यह अनुष्ठान के लिए जरुरी होगा तो उसने ऐसा ही किया l संत ने उससे पूछा ---- " घी और पत्थर का क्या हुआ ? ' वह युवक बोला ---- " महाराज ! घी तैरने लगा और पत्थर डूब गए l " संत ने कहा ---- " अब तुम किसी पंडित को ले आओ और उससे ऐसा मन्त्र पढ़ने को कहो जिससे घी डूब जाए और पत्थर ऊपर आ जाएँ l " युवक ने कहा ---- " महाराज ! क्यों मजाक करते हैं , ऐसा कैसे संभव है ? " संत बोले ---- " बेटा ! फिर ऐसा कैसे संभव है कि तुम्हारे पिता को उनके कर्मों के अतिरिक्त प्रकृति में स्थान दिला दिया जाये l यदि उन्होंने शुभ कर्म किए होंगे तो वे बिना किसी अनुष्ठान के श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करेंगे लेकिन यदि उन्होंने अशुभ कर्म किए होंगे तो स्रष्टि की कोई शक्ति उन्हें उच्च लोक में आरुढ़ नहीं कर सकती l इसलिए इस संबंध में चिंता छोड़कर श्रेष्ठ कर्म करने में जीवन लगाओ , यही श्रेयस्कर मार्ग है l "
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