हमारे देश में अनेक महान आत्माओं ने जन्म लिया और हमारी संस्कृति को जीवित रखने का अथक प्रयास किया l आदि शंकराचार्य की इच्छा थी कि इस देश में ज्ञानक्रांति के केंद्र बनें l इसके लिए उन्होंने चार स्थानों का चयन किया ---पूर्व में जगन्नाथपुरी , पश्चिम में द्वारका , उत्तर में बद्रिकाश्रम एवं दक्षिण में श्रंगेरी l इन केन्द्रों को स्थापित करने के लिए धन की आवश्यकता थी l राजा व श्रेष्ठि वर्ग कहते थे कि आप आदेश करें धन की कोई कमी नहीं होगी लेकिन आचार्य का कहना था कि जन सहयोग से कार्य हो l सबके द्वार पहुँचने से ज्ञान का सहज वितरण होगा l इस प्रयास में पद यात्रा करते हुए वे एक गाँव में पहुंचे l वहां कच्चे माकन व फूस की झोंपड़ियाँ थीं l लेकिन आचार्य का यश तो यहाँ तक , जन -जन तक पहुँच गया था l जिसके पास जो था वह बड़ी उदारता से दान कर रहा था l वे लोग सोच रहे थे कि जिन्हें देने के लिए राजा , महाराजा , संपन्न वर्ग उनके पीछे -पीछे घूमते हैं , वे आज हमारे द्वार पर आए हैं , यह हमारा सौभाग्य है l आचार्य एक झोंपड़ी के द्वार पर भिक्षा के लिए पुकार लगाईं l उस झोंपड़ी में एक वृद्धा थी जिसके पति व पुत्र दोनों का ही आकस्मिक निधन हो गया था l उसके स्वयं के भोजन पर संकट था l आचार्य को द्वार पर देख वह झोंपड़ी खंगालने लगी कि वह आचार्य को क्या दे l कुछ भी नहीं था उसके पास ! उसने फिर बाहर झांककर देखा तो आचार्य अभी तक खड़े थे l उसे अपनी गरीबी पर तरस आ रहा था , व्याकुल होकर वह ईश्वर से कहने लगी --- हे ईश्वर ! तूने मुझे इतना गरीब क्यों बनाया ? ईश्वर को उलाहना देते हुए वह फिर ढूंढने लगी कि कुछ तो मिल जाये l इस बार उसे कोने में पड़ा हुआ एक सूखा आंवला मिला l उसने आंवला उठा लिया और बड़े जातन से दौड़ते हुए द्वार पर आई l आचार्य वहीँ खड़े थे l उसने उनके हाथों पर वह सूखा आंवला रख दिया l इस आंवले के रखते ही आचार्य की हथेली पर आँसू की चार बूंदे गिरी l इनमे से दो आँसू वृद्धा के थे और दो आचार्य के l आंवले के रूप में वृद्धा अपनी सम्पूर्ण संपत्ति दान कर रही थी l ऐसी उदारता और ऐसी दरिद्रता के विरल संयोग को देखकर आचार्य भावुक हो गए , उन्होंने विकल होकर माता महालक्ष्मी को पुकारा --- " हे माता ! इस उदारता को सम्पन्नता का वरदान दो ! " उनके मुख से स्वत: स्फुरित स्तवन के स्वर फूटने लगे --------- आचार्य द्वारा किए जाने वाले इस स्तवन के प्रारम्भ होते ही सम्पूर्ण वातावरण में प्रकाश छा गया और सुगंध बिखर गई l स्तवन के पूर्ण होते ही वृद्धा की झोंपड़ी में आकाश से स्वर्ण आंवलों की कनक धाराएँ बरसने लगीं l महालक्ष्मी की कृपा और आचार्य की भक्ति के सभी साक्षी बने l आचार्य द्वारा कहा गया स्तोत्र --- कनकधारा स्तोत्र के नाम से सिद्ध स्तोत्र के रूप में वंदित हुआ l
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