मध्यकाल की बात है l समाज में अनेक कुरीतियाँ पनप रहीं थीं और मानवता का पतन अपनी चरम सीमा पर था l राजतन्त्र भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली बन गया था l ऐसे में एक संत ने समाज -सुधार का कार्य आरम्भ किया l कुछ लोग साथ चले और कुछ विरोधी भी हो गए l संत के आचरण के संबंध में अनर्गल बातों का प्रचार करने लगे l संत के शिष्य को यह अच्छा नहीं लगा l वह उनसे बोला ---- "गुरुदेव ! आप तो भगवान के समीप हैं , उनसे कहकर यह दुष्प्रचार बंद क्यों नहीं करा देते l " संत मुस्कराए और शिष्य के हाथ में एक हीरा देकर बोले --- " जा बेटा !सब्जी मंडी और जौहरी बाजार में इसका दाम पूछकर आ l " शिष्य को अजीब तो लगा लेकिन गुरु का आदेश था l कुछ समय बाद शिष्य लौटा और बोला --- " सब्जीमंडी में तो इसका ज्यादा से ज्यादा पचास रूपये का दाम लगा , पर जौहरी इसकी कीमत हजारों में आँक रहा था l " संत बोले ----- " बेटा ! अच्छे कर्म भी इसी हीरे की तरह हैं , जिसकी कीमत केवल परमात्मा रूपी पारखी ही जानता है l कुछ नासमझों के विरोध से यदि हम उदेश्य से विमुख हो गए , तो हम में और उनमें क्या अंतर रह जायेगा l " शिष्य भी इस सत्य को जान गया कि ईश्वर हम सबके कर्म और उस कर्म के पीछे छुपी भावनाओं को जानते है l अब शिष्य भी समर्पण के साथ समाज सुधार के कार्यों में जुट गया l
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