पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी की अमृतवाणी के कुछ अंश ------ तप का अर्थ है --आत्म परिष्कार के लिए तितिक्षा करना , कष्ट सहना l तपाने से ईंट मंदिर की नींव में लगती है l तपाने से भस्म खाने योग्य बनती है l हमें अपना जीवन मुसीबतों से खिलवाड़ करने वाला बनाना चाहिए l शक्तियों का बिखराव हम रोकें एवं उन्हें सृजन में नियोजित करें l व्यावहारिक जीवन जीते हुए , संघर्ष करते हुए , दुःखों का सामना करते हुए जो तपकर कुंदन की तरह दमकता है , वही सही अर्थों में तपस्वी है l ' ' मनुष्य जीवन पानी का बुलबुला है l वह पैदा भी होता है और मर भी जाता है l किन्तु शाश्वत रहते हैं उसके कर्म और विचार l सदविचार ही मनुष्य को सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं और सत्कर्म ही मनुष्य का मनुष्यत्व सिद्ध करते हैं l मनुष्य के विचार ही उसका वास्तविक स्वरुप होते हैं l ये विचार ही नए -नए मस्तिष्कों में घुसकर ह्रदय में प्रभाव जमाकर मनुष्य को देवता बना देते हैं और राक्षस भी l जैसे विचार होंगे मनुष्य वैसा ही बनता जायेगा l ' ' मानव जीवन दुबारा नहीं मिलता l वह क्षय हेतु नहीं , गरिमा के अनुरूप शानदार जीवन जीने को मिला है l यह हमें स्वयं ही निश्चित करना है कि पतन अभीष्ट है या उत्कर्ष ? असुरता प्रिय है या देवत्व ? क्षुद्रता चाहिए या महानता ? इसके निर्माता तुम स्वयं हो l पतन के पथ पर नारकीय मार सहनी पड़ेगी , उत्कर्ष के पथ पर स्वर्ग जैसी शांति की प्राप्ति होगी l ' ' कहाँ छिपा बैठा है सच्चा इनसान , ढूंढते जिसे स्वयं भगवान l '
No comments:
Post a Comment