' दु:संग भले ही कितना मधुर एवं सम्मोहक लगे , किन्तु उसका यथार्थ महाविष की भांति संघातक होता है l ' कहते हैं मित्रता सोच -समझकर करनी चाहिए l यदि संगति सही नहीं है तो साथी के मन में गहरे छुपे दुर्गुण उसके सद्गुणों को ढक देते हैं l व्यक्ति अपने ही सद्गुणों और अपने भीतर छिपी ताकत को भूल जाता है और अपने साथी के मन की गहराई में छिपे अंधकार को समझ नहीं पाता l महाभारत के प्रमुख पात्र ' दुर्योधन ' वास्तव में इतना बुरा नहीं था कि अपने ही वंश का विनाश करने के लिए जिम्मेदार कहलाए l महाभारत में अनेक प्रसंग है जो यह बताते हैं कि दुर्योधन अपने वचन को निभाने वाला , बहुत वीर था l भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलरामजी से उसने गदा युद्ध सीखा था , वह एक कुशल प्रशासक था , प्रजा उससे प्रसन्न थी , उसमे उच्च कोटि की संगठन क्षमता थी , उस समय के अनेकों शक्तिशाली राजाओं ने युद्ध में उसका साथ दिया l लेकिन दुर्योधन अपने मामा 'शकुनि ' की संगत में बाल्यकाल से ही रहा l शकुनि के मन में कौरव वंश के प्रति अच्छी भावना नहीं थी , उसके मन में इस बात का कष्ट था कि उसकी बहन गांधारी का विवाह दबाव में धृतराष्ट्र से हुआ जो अंधे थे , इसलिए वह निरंतर कुटिल चालें चलता रहा l देखने में लगता था कि वह दुर्योधन का हितैषी है , लेकिन वास्तव में वह कौरव वंश की जड़ें काट रहा था l दुर्योधन तो हस्तिनापुर युवराज था , सारा जीवन अपने पिता के अंधे मोह का फायदा उठकर उसने राजसुख भोगा लेकिन फिर भी पांडवों पर अत्याचार करता रहा l शकुनि जैसे कुटिल व्यक्ति की संगति के कारण दुर्योधन अपने ही सद्गुणों का सदुपयोग न कर सका और कौरव वंश के पतन का जिम्मेदार बना l
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