एक व्यक्ति ने सुन रखा था कि तप करने से अहंकार मिट जाता है l क्रोध चला जाता है l वह घर छोड़ के हिमालय चल दिया l जंगलों के पार बर्फीली गुफाओं में बैठकर साधना करने लगा l उसे ऐसा करते बीस वर्ष बीत गए , वह अकेला ही रहता था l उसे अहंकार व क्रोध का मौका ही नहीं मिलता था l उसने सोचा ---चलो अहंकार से छुटकारा मिला l अब वापस लौट चलना चाहिए l वह गुफा से निकलकर नीचे आया , जब लोगों को पता चला कि वह बीस वेश तक हिमालय की गुफाओं में तप का के आया है , तो भीड़ इकट्ठी होने लगी l उसके दर्शनों के लिए लोग आते , पैर छूते , परिक्रमा करते l महात्मा के मन में ऐसा सम्मान पाकर गुदगुदी होती l एक दिन भक्तों ने कहा --- चलें कुम्भ स्नान कर के आएं l महात्मा चल पड़े l मेला -ठेला की भीड़ में उनके पैर पर जमकर किसी का भूलवश पैर पड़ गया l महात्मा तिलमिला गए और उछलकर उस व्यक्ति की गर्दन पकड़ ली और बोले ---- " जानता नहीं दुष्ट , मैं कौन हूँ ? " महात्मा के अंदर छुपा अहंकार और क्रोध भी उछलकर ऊपर आया l लोग हैरान हो गए कि ये कैसा महात्मा है ? कोई जानबूझकर पैर तो नहीं रखा है , जो इतना आगबबूला हो गया l ऋषि कहते हैं ---- यदि व्यक्ति अपने पर ही नियंत्रण न कर पाए तो उसकी एकांत साधना , तप तितिक्षा सब व्यर्थ है l सच्ची साधना जंगल में नहीं संसार में रहकर होती है , जहाँ मन को विचलित करने के अनेक साधन हैं , उनके बीच रहकर मन को नियंत्रित कर शांति से रहना ही तप है l और मन भी स्वाभाविक रूप से नियंत्रित होना चाहिए , उसे बलपूर्वक नियंत्रित करने के दुष्परिणाम हो सकते हैं l
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