जब महाभारत का अन्तिम श्लोक गणेशजी के सुपाठ्य अक्षरों में अंकित हो चुका तब महर्षि वेदव्यास ने गणेशजी से कहा -"आपका मौन विस्मयकारी है ।इस सुदीर्घ काल में मैंने तो पंद्रह बीस लाख शब्द बोल डाले ,परन्तु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना ।इस पर गणेशजी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा -"किसी दीपक में अधिक तेल होता है ,किसी में कम ,परन्तु तेल का अक्षय भंडार किसी किसी दीपक में नहीं होता ।उसी प्रकार सबकी प्राणशक्ति सीमित है ,असीम किसी की नहीं ।इस प्राणशक्ति का पूर्णतम लाभ वही पा सकता है जो संयम से उसका उपयोग करता है ।संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है और संयम का प्रथम सोपान है -वाक्-संयम ।वाणी का संयम न रखने से प्राणशक्ति सूख जाती है इसलिए मैं मौन का उपासक हूँ ।
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